ऋषि चिंतन : वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी का आलेख

🌴०८ जुलाई २०२५ मंगलवार 🌴
🍂आषाढ़ शुक्लपक्ष त्रयोदशी २०८२ 🍂
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‼️ऋषि चिंतन ‼️
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अर्थोपार्जन और आध्यात्मिकता
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👉 कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि “धार्मिक व्यक्ति” को धन से “विरक्ति” होनी चाहिए। जहाँ तक आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति का प्रश्न है, धन के प्रति अत्यधिक लगाव न रखना उचित भी है, किंत गृहस्थी की सुख-सुविधाओं के लिए, “धार्मिक प्रयोजनों” की पूर्ति के लिए “धन” अत्यधिक आवश्यक है। धन के बिना न धर्म संभव है न कर्तव्य पालन। इस दृष्टि से “निर्धनता” अभिशाप है। हमारे आध्यात्मिक जीवन में धन का उतना ही महत्त्व है, जितना ईश्वर उपासना का। लक्ष्मी को परमात्मा का वामांग मानते हैं। इसलिए उपासना को तब पूर्ण समझना चाहिए जब लक्ष्मी-नारायण दोनों की प्रतिष्ठा हो। जहाँ लक्ष्मी नहीं वहाँ का परमात्मा भी बेचैन रहता है। लक्ष्मी रहती है तो परमात्मा की प्राप्ति में सुविधा मिलती है, हमारी मान्यता इस प्रकार की होनी चाहिए।
👉 आर्थिक दृष्टि से मनुष्य दूसरों का गुलाम बने, यह न तो उपयुक्त ही है और न परमात्मा की ही ऐसी इच्छा है। उन्होंने अपने प्रत्येक पुत्र को समान साधन दिए हैं, समान क्षमताएँ दी हैं तो उसका एक ही उद्देश्य रहा है कि आत्म-कल्याण और जीवनयापन में प्रत्येक व्यक्ति आत्मनिर्भर रहे। ईश्वरनिष्ठ को निराश्रित होना उचित भी नहीं, अपनी आजीविका का प्रबंध उसे स्वयं करना चाहिए।
👉 “निर्धनता” एक प्रकार की “आध्यात्मिक विकृति” है। धन न कमाना त्याग का लक्षण नहीं। यह मनुष्य में दैवी गुणों की कमी का परिचायकहै। हर व्यक्ति को विशुद्ध धार्मिक भावना से अर्थोपार्जन करना चाहिए। यह क्रिया आत्म-विकास के अंतर्गत ही आती है। ‘पीस, पावर एंड प्लेन्टी‘ (शांति, शक्ति और समृद्धि) नामक पुस्तक के रचयिता श्री ओरिसन मार्डन ने लिखा है- “जो दरिद्री होते हैं उनमें न आत्म-विश्वास होता है और न श्रद्धा। लोग अपनी स्थिति बदल सकते हैं पर उन्हें अपनी शक्तियों पर भरोसा करना आना चाहिए। आशा, साहस, उत्साह और कर्मशीलता के द्वारा कोई भी व्यक्ति श्री संपन्न बन सकता है।”
👉 धन को सुख का साधन मानकर उसे “ईमानदारी” और “परिश्रम” के द्वारा कमाया जाए तो वह आत्म-विकास में भी सहायक होता है। धन प्राप्ति का एक दोष भी है- होता अनावश्यक “लोभ” । वित्तेषणा के कारण लोग अनुचित तरीकों से धन कमाना चाहते हैं। बेईमानी के द्वारा कमाया हुआ धन मनुष्य को व्यसनों की ओर आकर्षित करता है। जुआ, सट्टा, लाटरी, नशा, वेश्यावृत्ति में धन का अपव्यय करने वाले प्रायः सभी अनुचित तरीकों से धनार्जन करते हैं। ,इस प्रकार की कमाई मनुष्य की दुर्गति करती है। इस प्रकार का धन हेय कहा गया है और उस “धन” से “निर्धन” होना अच्छा बताया गया है।
👉 अर्थोपार्जन में जिन आध्यात्मिक गुणों का समावेश होना चाहिए, शास्त्रकार ने उन्हें बड़े आलंकारिक ढंग से प्रस्तुत किया है। लक्ष्मी को वे देवी मानते हैं। उन्हें कमल पुष्प पर आसीन, ऊपर से फूलों की वर्षा होती हुई दिखाया गया है। “कमल” “पवित्रता” और “सौंदर्य” का प्रतीक है। लक्ष्मी पवित्रता और सौंदर्य अर्थात “ईमानदारी” और “सचाई” पर विराजमान हैं। उनका वाहन उल्लू है। उल्लू मूर्खता का प्रतीक है। मूर्खतापूर्ण स्वभाव वाले या अवगुणी व्यक्तियों के लिए यह लक्ष्मी भार स्वरूप, दुःख रूप होती है।यह दिग्दर्शन उनके चित्र में कराया गया है।
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धन बल से मनुष्यता रौंदी न जाए पृष्ठ १६
🍁पं श्रीराम शर्मा आचार्य🍁
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