सन्यास धारण करने के बाद घर पहुंचे बहादुर बाबा ने अपनी पत्नी से कहा भिक्षाम देही

कहते हैं मन के जीते जीत है मन के हारे हार अर्थात मन ही व्यक्ति के बंधन और मोक्ष का कारण है अर्थात पूरा खेल मन ही का है मन में ग्रहस्थ छोड़ वैराग्य लेने का ख्याल आया तो इसे चरितार्थ कर दिया संजयनगर बिंदुखत्ता के बहादुर भाई ने बहादुर भाई पूर्व में डॉन बॉस्को स्कूल बेरी पड़ाव में परिचालक रह चुके हैं लेकिन उनके अंदर धार्मिक प्रवृत्ति कूट-कूट कर भरी है उन्होंने अपने घर के ही सामने एक छायादार वृक्ष के नीचे छोटे-छोटे मंदिरों की स्थापना की है जहां वे दिन भर भजन में लगे रहते हैं बहादुर भाई मकर संक्रांति के पावन पर्व पर माता गिरिजा के दर्शन करने रामनगर पहुंचे बताते हैं कि गिरिजा मंदिर के पास में ही एक अन्य मंदिर शिवालय पर उनकी मुलाकात एक सीताराम बाबा से हुई उनके साथ हरि चर्चा
का ऐसा सिलसिला चला कि वह उस दिन वहीं रुक गए सत्संग में ऐसे रमे कि फिर उनके मन में ख्याल आ गया कि अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी पूरी कर ली है तो क्यों ना पूरा समय धर्म के प्रचार प्रसार में दिया जाए और उन्होंने गृहस्थ जीवन के सभी कपड़ों का परित्याग कर जोगी वस्त्र धारण कर लिया फिलहाल उन्हें अभी कुछ समय बाद गंगासागर जाना है तब उन्हें दीक्षा एवं नया नाम मिलेगा इस बीच काफी लंबे समय बाद वह अपने घर आए तो उन्होंने सन्यासी जीवन की मर्यादा का पालन करते हुए गृहस्थ की दहलीज के अंदर कदम नहीं रखा और अपनी पत्नी को आवाज लगाकर घर के बाहर ही चाय मंगा कर पी कुशल क्षेम पूछी लेकिन पत्नी के आग्रह करने पर भी उन्होंने ग्रहस्थ के घर में पका हुआ भोजन ग्रहण नहीं किया जैसा कि उनको गुरु आज्ञा रही होगी बहादुर भाई कहते हैं कि जो सुख सत्संग में सो बैकुंठ ना होई
