ऋषि चिंतन : भोजन कैसे ग्रहण किया जाए

युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के सुझाव
🥀// २४ मार्च २०२५ सोमवार //🥀
💐चैत्र कृष्णपक्ष दशमी २०८१💐
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‼ऋषि चिंतन‼
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।।भोजन कैसे ग्रहण किया जाए ?।।
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👉 “कैसे खाया जाए?” इस प्रश्न का उत्तर यह है कि शांत चित्त, प्रसन्न मन और पवित्रता के साथ खाना चाहिए । जिस समय शोक, क्रोध, उत्तेजना, क्लेश, विरोध उत्पन्न होते हों, उस समय करना या कराना ठीक नहीं। मनोविकारों के आवेश के समय पाचक रस स्रवित करने वाली ग्रंथियाँ सूख जाती हैं और उनमें से वे रस बहुत कम निकलते हैं, जो पचाने के लिए आवश्यक हैं। जो रस निकलते हैं, वे क्रोध आदि के कारण विषैले हो जाते हैं, उनके द्वारा न तो ठीक पाचन होता है और न शुद्ध रक्त बनता है। आवेश के समय भूख नहीं रहती। इससे भी स्पष्ट है, शरीर उस समय भोजन ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होता। शांत चित्त और प्रसन्न मन से खूब चबा-चबाकर ग्रास को पेट में जाने देना चाहिए, यहाँ जल्दबाजी अच्छी नहीं। दाँतों का काम भोजन को पीसना और आँतों का काम भोजन को पचाना है। अगर दाँत ठीक तरह न पीसें और अधकुचले ग्रास यों ही निगल लिए जाएँ, तो दाँतों का काम आँतों को करना पड़ता है। पीसने का और पचाने की दोनों क्रियाएँ करने में पेट को बड़ी मेहनत पड़ती है और वह बेचारा थककर अपना काम ठीक तरह नहीं कर पाता। मुँह में छोटी-छोटी गिल्टियाँ होती हैं, ग्रास को मुँह में चबाते समय उन गिल्टियों में से एक रस निकलता है, जिसके द्वारा पाचन क्रिया में बड़ी सहायता मिलती है। यदि यह रस भोजन में न मिले, तो पाचन कार्य बड़ा जटिल हो जाता है। इस दृष्टि से भी चबाना आवश्यक है। आयुर्वेद का मत है कि हर ग्रास को बत्तीस बार चबाकर तब निगलना चाहिए। ऐसी संख्या नियत करना और हर ग्रास में गिनती करना तो कठिन है, पर इतना ध्यान तो अवश्य रखना चाहिए कि ग्रास खूब अच्छी तरह पिस जाय, पतला हो जाय और निगलते समय जरा-सी अड़चन न मालूम पड़े। दलिया, हलुआ, खीर आदि पतली चीजों को भी इसी प्रकार चबाना चाहिए यों ही पी जाना ठीक नहीं। पानी या दूध भी एकदम न चढ़ा लेना चाहिए वरन् घूँट-घूँट, थोड़ा-थोड़ा मुँह मैं जरा रोककर पीना चाहिए।
👉 अन्न में अमृत की भावना करके, भगवान् के प्रसाद की भावना करके उसे प्रसन्नता और आदर के साथ खाना चाहिए। स्वाद में थोड़ी कमी होने के कारण नाक, भौं सिकोड़ना, उसमें दोष ढूँढना, असंतुष्ट होकर खाना, खराब समझकर खाना बहुत बुरा है। दुर्भाव, द्वेष दोषारोपण और अपमान के साथ खाया हुआ अन्न पेट में विकार उत्पन्न करता है। लाभ के स्थान पर हानिकारक सिद्ध होता है। यदि रूखे-सूखे साग, सत्तू को सिर माथे चढ़ाकर, अन्न देवता के अमृतोपम गुणों का चिंतन करते हुए संतोष और प्रसन्नता के साथ खाया जाये, तो उसके द्वारा निश्चय ही पाचन अवश्य होगा और शुद्ध रस रक्त बनेगा।
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बिना औषधियों के कायाकल्प पृष्ठ-२१
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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