ऋषि चिंतन :वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के सुविचार

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🌴२४ अगस्त २०२५ रविवार 🌴
।।भाद्रपद शुक्लपक्ष प्रतिपदा२०८२ ।।
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‼️ऋषि चिंतन ‼️
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कर्मभोगी नहीं, कर्मयोगी बनें
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👉 आदि से लेकर अंत तक मनुष्य के जीवन में “कर्म” भरे पड़े हैं। परिवार के लिए अन्न, वस्त्र आदि की व्यवस्था, बच्चों की पढ़ाई, रोजी-रोजगार, बीमारियों का चक्कर, शादी-विवाह, मेल-मिलाप आदि तरह-तरह के कर्म उसे करते ही रहने पड़ते हैं। इतने और इतने से भी और न जाने कितने ज्यादा कर्मों के बीच “कर्म-कुशलता” ही वह संबल है, जिसके आधार पर सभी ओर सफलता और सभी ओर सुख-संतोष पाया जा सकता है। अन्यथा, यदि एक कर्म सफल होकर अंजलि भर सुख देगा, तो चार असफल होकर पास की भी सुख-शांति छीन ले जाएँगे। “कर्म-कौशल” इसी में है कि कामों की एक ऐसी व्यवस्था, ऐसा विधान बनाया जाए, जिसकी धुरी पर सारे कर्तव्य अपनी-अपनी कक्षा में वांछित गति से चक्कर लगाते रहें, जिससे हर काम पर दृष्टि रखी जाए और सब पर उचित ध्यान दिया जा सके। किन्हीं एक-दो रुचिकर कामों से आसक्ति जोड़कर बैठ रहना सारे कर्म-कलाप को छितरा देगा और तब उनको समेटने तथा सँभालने में इतना और अनावश्यक रूप में श्रम करना पड़ेगा कि जिंदगी बोझ बनकर रह जाएगी।
👉 संपूर्ण “कर्म-व्यवस्था” तभी ठीक रह सकती है, जब प्रत्येक कार्य को चतुराई के साथ अपेक्षित मनोयोग से किया जाए। न तो किसी काम को छोड़ा ही जा सकता है और किसी को पकड़कर बैठाया ही जा सकता है। समय और परिस्थिति के अनुसार सारे कामों को पूरा करना आवश्यक है। जिस ओर ध्यान न दिया जाएगा, उसी ओर अशांतिदायक अव्यवस्था फैल जाएगी। उदाहरण के लिए मान लीजिए, बच्चों को खूब खिला-पिलाकर स्वस्थ तो बना दिया, किंतु उनकी “शिक्षा” की ओर ध्यान नहीं दिया, तो निश्चय ही वे अशिक्षित बच्चे आगे चलकर एक बड़ी अशांति एवं अव्यवस्था के कारण बनेंगे। दिन और रात परिश्रम करके धन की प्रचुरता कर ली, *पर उसको “पुण्य, परमार्थ” अथवा अन्य आवश्यक कामों में व्यय करने में कृपणता की, तो क्या वह धन चोरों, डाकुओं, ईर्ष्यालुओं और शत्रुओं की दुरभिसंधि का केंद्र बनकर जीवन में भय और शंका उत्पन्न नहीं कहेगा ? *क्या वह परिवार में “कलह” और “संघर्ष” का सूत्रपात नहीं करेगा ?* दिनभर काम तो खूब किया जाए पर आहार की ओर ध्यान न दिया जाए, तो क्या स्वास्थ्य सुरक्षित रखा जा सकता है ? इसी प्रकार पत्नी को भोजन, वस्त्र तो प्रचुर मात्रा में दिया जाए, पर उसकी प्रेम-पिपासा की उपेक्षा कर दी जाए, तो क्या यह विश्वास किया जा सकता है कि वह संतुष्ट रहेगी और कलह अथवा क्लेश पैदा नहीं करेगी।
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“कर्मयोग” और “कर्म कौशल” पृष्ठ ०८
🍁।।पं श्रीराम शर्मा आचार्य।।🍁
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