ऋषि चिंतन : वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के विचार

🥀// १९ मई २०२५ सोमवार //🥀
//जयेष्ठकृष्णपक्षसप्तमी २०८२//
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‼ऋषि चिंतन‼
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“मन” एवं “अंतरात्मा” की दुविधा
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👉 “अंतरात्मा” मनुष्य का “मित्र” है और सदैव ही उसका हित चाह रहता है, तो फिर वह उसके लिए प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता, लुका छिपा क्यों रहता है? यह प्रश्न किसी भी व्यक्ति के मस्तिष्क में उठ सकता है। इसका सीधा-सा उत्तर यही है कि “आत्मा” सदा-सर्वदा प्रत्यक्ष ही रहता है. किंतु यह मनुष्य का ही “दृष्टि दोष” है कि वह उसे देख नहीं पाता। सूर्य सदैव प्रत्यक्ष है, जब उसके तथा दृष्टि के बीच में कोई व्यवधान आ जाए, तो सूर्य उसके लिए अप्रत्यक्ष ही है। “मनुष्य” तथा उसके “आत्मा” के बीच “मन” की प्रधानता का परदा पड़ा हुआ है, जिसके कारण प्रत्यक्ष आत्मा भी मनुष्य के लिए अप्रत्यक्ष ही रहता है। यदि मनुष्य इस मन की प्रधानता की उपेक्षा कर सके, तो निश्चय ही उसका अंतरात्मा उसके लिए प्रकाश के समान ही प्रत्यक्ष हो जाए।
👉 “मन” को प्रधानता देने वाले सदैव ही अपनी “आत्मा” से वंचित रहा करते हैं और उससे मिलने के लिए उत्सुक होने पर भी सान्निध्य प्राप्त नहीं कर पाते। मन को प्रधानता देने वाले उसके निर्देश एवं संकेत से ही संचालित हुआ करते हैं। बहुत बार बहुत से मनीषीजन अपने “मन” को साधना द्वारा शुद्ध एवं प्रबुद्ध भी कर लिया करते हैं, किंतु तब तक वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध “मन” विश्वस्त नहीं माना जा सकता, जब तक उसकी सत्ता आत्मा में अंतर्हित नहीं हो जाती। बहुत बार संस्कृत एवं सुशिक्षित होकर मन और अधिक प्रबल हो जाता है, उसकी सत्ता इतनी बढ़ जाती है कि वह “आत्मा” को अनुशासित करने का प्रयत्न ही नहीं करता, अपितु अपने को मनुष्य का “अंतरात्मा” ही घोषित करने लगता है। किंतु आत्मा के प्रति उत्सुक मनीषीजन उसकी इस दुरभिसंधि को अच्छी तरह जानते हैं और कभी भी उसके छल में नहीं आते।
👉 “मन” जितना अधिक प्रबल एवं प्रबुद्ध होता है उतना ही अधिक “दुराग्रही” हो जाता है। वह जो कुछ देखता, सुनता, अनुभव एवं स्वीकार करता है, उसे ही सत्य मान लेता है और हठपूर्वक इस बात का प्रयत्न किया करता है कि जिस बात को उसने स्वीकार किया, मुनष्य भी उसे सत्य माने तथा यथावत स्वीकार कर ले। अपने आपेक्षिक ज्ञान का भी दुराग्रही मन सत्य सिद्ध करने के लिए ऐसे-ऐसे समर्थ तर्कों का अनुसंधान कर लेता है कि जिनको सुनकर मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है और उनको स्वीकार कर लेता है। किंतु वास्तविकता यह होती है कि “मन” का अनुभूत ज्ञान कभी भी सत्य नहीं हो सकता। मन की सत्ता भौतिक है, सांसारिक है। अस्तु, उसका अनुभव किया हुआ जड़जन्य ज्ञान सत्य नहीं हो सकता। “मन” की प्रेरक प्रबलता से बचने का एक ही उपाय है कि किसी भी स्थिति में उस पर विश्वास न किया जाए और प्रधानता “मन” से छीनकर “अंतरात्मा” को दी जाए। प्रधानता के अभाव में उसका दुराग्रह कम हो जाएगा और मनुष्य की अमर आत्मा उदीयमान होने लगेगी।
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जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्म-ज्ञान पृष्ठ-३८
🪴 पं. श्रीराम शर्मा, आचार्य🪴
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