ऋषि चिंतन: युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के विचार

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🌴।।१८ जून २०२५ बुधवार।।🌴
//आषाढ़कृष्णपक्षसप्तमी२०८२ //
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‼️ऋषि चिंतन ‼️
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❗➖शरीर का ही नहीं➖❗
‼️ आत्मा का भी ध्यान रखें ‼️
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👉 इस बात से जरा भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मानव जीवन में “शरीर” का महत्त्व कम नहीं है। शरीर की सहायता से ही संसार-यात्रा संभव होती है। शरीर द्वारा ही हम उपार्जन करते हैं और उसी के द्वारा सारी क्रियाएँ संपन्न करते हैं। यदि मनुष्य को शरीर प्राप्त न हो, तो वह तत्त्व रूप से कुछ भी करने में समर्थ न हो।
👉 यदि एक बार मानव शरीर के इस महत्त्व को गौण भी मान लिया जाए, तब भी “शरीर” का यह महत्त्व तो प्रमुख है ही कि “आत्मा” का निवास उसी में होता है। उसे पाने के लिए किए जाने वाले सब प्रयत्न उसी के द्वारा संपादित होते हैं। सारे “आध्यात्मिक” कर्म जो आत्मा को पाने, उसे विकसित करने और बंधन से मुक्त करने के लिए अपेक्षित होते हैं, शरीर की सहायता से ही संपन्न होते हैं। अतः शरीर का अपरिहार्य महत्त्व है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
👉 “शरीर” का महत्त्व बहुत है तथापि, जब इसको आवश्यकता से अधिक महत्त्व दे दिया जाता है, तब यही “शरीर” जो संसार बंधन से मुक्त होने में हमारी एक “मित्र” की तरह सहायता करता है, हमारा “शत्रु” बन जाता है। अधिकार से अधिक शरीर की परवाह करने और उसकी इंद्रियों की सेवा करते रहने से, शरीर और उसके विषयों के सिवाय और कुछ भी याद न रखने से वह हमें हर ओर से विभोर बनाकर अपना दास बना लेता है और दिन-रात अपनी ही सेवा में तत्पर रखने के लिए दबाव में आ जाने वाला व्यक्ति कमाने-खाने और विषयों को भोगने के सिवाय इससे आगे की कोई बात सोच ही नहीं पाता। उसका सारा ध्यान शरीर और उसकी आवश्यकताओं तक ही केंद्रित हो जाता है। वह शरीर और इंद्रियों की दासता में बँधकर अपनी सारी शक्ति, जिसका उपयोग महत्तर कार्यों में किया जा सकता है, शरीर की सेवा में समाप्त कर देता है। इस प्रकार। उसका जीवन व्यर्थ ही चला जाता है और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके हृदय में एक पश्चात्ताप रह जाता है, जिसके लिए यह बहुमूल्य मानव जीवन प्राप्त हुआ है। इसलिए मनुष्य को इस विषय में पूरी तरह से सावधान रहने की आवश्यकता है कि “शरीर” का कितना महत्त्व है और अपनी सेवा पाने का उसे कितना अधिकार है ?
👉 “शरीर” की सेवा तक सीमित हो जाने की भूल मनुष्य से प्रायः तब होती है, जब वह “शरीर” को ही सब कुछ समझ लेता है। सत्य बात तो यह है कि मनुष्य शरीर नहीं, आत्मा है। “शरीर” तो “साधन” मात्र है, “साध्य” केवल “आत्मा” ही है, इसलिए प्रधान महत्त्व “शरीर” को नहीं “आत्मा” को ही देना चाहिए। आत्मा स्वामी है और शरीर सेवक। इस “शरीर” को ही “आत्मा” की सेवा में नियोजित करना चाहिए, न कि “आत्मा” को “शरीर” के अधीन कर देना चाहिए। जो इस नियम एवं अनुशासन का उल्लंघन करते हैं, वे आत्मा की हित-हानि करने वाले भयानक भूल करते हैं, जो निश्चित रूप से शोक, खेद और पश्चात्ताप का विषय है।
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जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्म-ज्ञान पृष्ठ २५
🍁पं श्रीराम शर्मा आचार्य🍁
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