ऋषि चिंतन: क्या जीवन में गुरु धारण करना आवश्यक है

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🥀 २० अप्रेल २०२५ रविवार 🥀
//वैशाख कृष्णपक्ष सप्तमी २०८२//
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‼ऋषि चिंतन‼
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क्या गुरु वरण आवश्यक है ?
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👉 क्या किसी एक गुरु का, सोचसमझ कर, चयनकर, निर्धारण कर “गुरुवरण” करना आवश्यक है? यह कार्य क्या अनेकों सुयोग्यों से संपर्क स्थापित करते रहने पर संभव नहीं है ? इन जिज्ञासाओं के समाधान के लिए “पी-एच०डी० करने वालों”, “चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट्स की परीक्षा देने वालों”, “वकीलों” तथा “डॉक्टर” बनने के बाद “इंटर्नशिप” की प्रक्रिया से गुजरने वालों की सुव्यवस्थित अभ्यास की विधि-व्यवस्था पर दृष्टि डालनी होगी। “गाइड” अथवा “प्रशिक्षण तंत्र” के माध्यम से ही उपरोक्त प्रयोजन पूरे होते हैं। निश्चित निर्धारण के बाद एक सुनिश्चित उत्तरदायित्व भी बनता है एवं उस सीमा-बंधन के आधार पर शिक्षण प्रक्रिया की समग्रता की सुनिश्चितता भी रहती है ।
👉 “अध्यात्म” क्षेत्र में भी वही बात इसी तरह लागू होती है। आत्मिक क्षेत्र की प्रगति भौतिक प्रगति से कम नहीं, अधिक ही अभीष्ट है । आत्मिक प्रगति से ही व्यक्ति को अनगढ़ से सुघड़ बनने एवं अपने व्यक्तित्व की गरिमा को असाधारण रूप से बढ़ाने का अवसर मिलता है । उसकी जो फलश्रुतियां हैं, अपरिमित उपलब्धियां है, उन्हें देखते हुए गुरु का आश्रय आध्यात्मिक दृष्टि से अनिवार्य माना जाना चाहिए ।
👉 भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह तीन देवता धरती के माने गए हैं। माता, पिता और गुरु की तुलना उन त्रिदेवों से की गयी है। माता “ब्रह्मा” क्योंकि यह बालक को पेट में रखती और अपना शरीर काट कर, बालक का शरीर बनाकर जन्म देती है। “पिता को “विष्णु” माना गया है, क्योंकि वह बालक के भरण-पोषण की, शिक्षा, चिकित्सा, विवाह, आजीविका जैसी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करके उसे समर्थ बनाता है। इस प्रकार पिता विष्णु ठहरता है। “गुरु” की गरिमा इन दोनों से ऊँची है। माता-पिता तो मात्र शरीर का ही सृजन और पोषण करते हैं जबकि “गुरु” आत्मा में, व्यक्तित्व में सुसंस्कारिता का आरोपण करके, उसे इसी जन्म में दूसरा जन्म प्रदान करता है। “द्विजत्व” एक उच्चस्तरीय संस्कार है, जिसे यज्ञोपवीत दीक्षा के साथ कर्मकांड के रूप में संपन्न किया जाता है। यह प्रतीक पूजा हुई। वस्तुतः इस कृत्य के पीछे गुरु वरण की भूमिका ही काम करती है। माता-पिता के सहयोग से मानव शरीर की उपलब्धि जितनी महत्त्वपूर्ण है, उससे भी अधिक गुरु महिमा की सहायता “नर-पशु” से, “नर-नारायण” बनने की संभावना के संबंध में समझी जा सकती है। आत्मिक क्षेत्र का परिशोधन परिष्कार कर सकने वाली गुरु गरिमा को वस्तुतः मूर्तिमान शिव कहा जा सकता है। इसी रूप में वंदना अभ्यर्थना के स्तवन छंद भी बने और गाए गए हैं।
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलंबन की आवश्यकता पृष्ठ-०५
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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