ऋषि चिंतन: आखिर क्या है धर्म का मूल तत्व
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‼ऋषि चिंतन‼
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धर्म के मूल तत्त्व को समझना होगा
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👉 संसार के अनेक धर्मों के आदेशों को सामने रखें। उनके सिद्धांत और आदेशों पर दृष्टिपात करें तो वे बहुत बातों में एकदूसरे से विपरीत जाते हुए प्रतीत होते हैं। उनमें विरोधाभास भी दिखाई देता है। परंतु वास्तव में भ्रम में पड़ने की कोई बात नहीं है। अंधों ने एक बार एक हाथी को छूकर देखा और वे उसका वर्णन करने लगे। जिसने पैर छूआ था उसने हाथी को खंभा जैसा; जिसने पूँछ छुई थी उसने बाँस जैसा और कान छूआ था उसने सुपड़े जैसा बताया। वास्तव में वे सभी सत्य वक्ता हैं; क्योंकि अपने ज्ञान के अनुसार सभी ठीक कह रहे हैं। उनका कहना उनकी परिस्थिति के अनुसार ठीक ही है। परंतु उसे पूरा नहीं माना जा सकता है। देशकाल और पात्र की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए अवतारी आत्माओं ने विभिन्न धर्मों का उपदेश दिया है।
👉 भगवान महावीर को एक मांसभोजी निषाद मिला। उन्होंने उसे मांस-भोजन त्याग देने के लिए बहुत समझाया, पर कुछ भी असर न हुआ। तब उन्होंने सोचा कि इसकी मनोवृति इतनी निर्मल नहीं जो अपने चिरकाल के संस्कारों को एकदम त्याग दे। इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे उसे बढ़ाने का उपदेश देना उचित समझा। सोच-विचार के बाद भगवान महावीर ने उस निषाद से कहा, अच्छा भाई! कौवे का मांस खाना तो छोड़ दोगे, यह भी बड़ा धर्म है। निषाद उसके लिए तैयार हो गया; क्योंकि कौवे का मांस खाने का उसे अवसर ही न आता था। जब “त्याग” का संकल्प कर लिया तो इसके मन में धर्मभावना जाग्रत हुई और धीरे-धीरे अन्य त्यागों को अपनाता हुआ कुछ दिन बाद बड़ा भारी धर्मात्मा, अहिंसा का पुजारी और भगवान महावीर का प्रधान शिष्य बन गया। अवतारी महापुरुष जिस जमाने में हुए हैं उन्होंने उस समय की परिस्थितियों, देश, काल, पात्र का बहुत ध्यान रखा है। अरब में जिस समय हजरत मुहम्मद साहब हुए थे उस समय वहाँ के निवासी अनेक स्त्रियाँ रखते थे। उन्हें चाहे जब रखते और चाहे जब निकाल देते थे; जब संतान बढ़ती और उनका पालन-पोषण न कर पाते तो निर्दयतापूर्वक बच्चों को मार-मारकर फेंक देते, उपयोगी और अनुपयोगी पशुओं की अंधाधुंध हत्या करते थे। उन्हें धीरे-धीरे सुधारने के लिए हजरत मुहम्मद साहब ने चार स्त्रियाँ रखने की, बालकों को न मारने की, जीवहत्या एक निश्चित व सीमित संख्या में करने की शिक्षा दी। समय बीत जाने पर अब एक व्यक्ति को चार स्त्रियाँ रखने की आवश्यकता नहीं। देखने में वह शिक्षा आवश्यक हो गई। पर इसके मूल में छिपा हुआ सत्य ज्यों का त्यों आवश्यक है-“अपनी आवश्यकताओं को घटाओ, भोगों को कम करो।” प्रेम का यह संदेश उस शिक्षा के मूल में था। वह उद्देश्य करोड़ों वर्षों में भी परिवर्तित न होगा।
आप गंभीरतापूर्वक धर्मतत्त्व पर दृष्टिपात कीजिए और धर्म की उन नियम व्यवस्थाओं में कौन-सी पवित्र और शाश्वत भावना काम कर रही है उसे ढूँढ़ निकालिए। सत्य शाश्वत है और कायदे, कानून, विचार, व्यवस्था परिवर्तनशील हैं। इस ध्रुव सत्य को हृदयंगम करते ही धर्मों का आपसी विरोध, वैमनस्य दूर हो जाता है और “धर्म” सत्य है एवं एक ही नींव पर रखे हुए हैं, यह दृष्टिगोचर होने लगता है।
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अध्यात्म, धर्म और कल्याण का तत्त्वदर्शन एवं विज्ञान पृष्ठ-०७
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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