ऋषि चिंतन: इस संसार की सबसे बड़ी विभूति क्या है पढ़िए युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का आलेख

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🥀 २१ दिसंबर २०२४ शनिवार 🥀
🌺पौष कृष्णपक्ष षष्ठी २०८१🌺
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‼ऋषि चिंतन‼
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❗जो प्राप्त है उसे न देखकर❗
।।अप्राप्त के लिए दुःखी क्यों ?।।
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👉 मनुष्य जीवन इस संसार की सबसे बड़ी विभूति है। प्राणी के लिये ईश्वर का यह सबसे बड़ा उपहार और वरदान है। इससे बड़ा सौभाग्य और सुअवसर किसी जीवधारी के लिये हो नही सकता कि वह मनुष्य शरीर प्राप्त करे। ८४ लाख योनियों में से एक मनुष्य को छोड़‌कर कोई भी ऐसा नहीं जिसको हँसने, बात करने लिखने, पढ्ने, उत्पादन, उपार्जन, वाहन, वस्त्र, गृहस्थ, समाज, धन, न्याय, सुरक्षा, कानून, मनोरञ्जन आदि की सुविधायें उपलब्ध हों। सभी जीवधारियों को जीवित रहने, पेट भरने और प्रजनन मात्र की ही सुविधा हैं शेष तो अभाव एवं असुविधाओं से भरा ही उनका जीवन है। यदि वे मनुष्य के साथ अपनी तुलना करने लगें तो अन्तर अकाश पाताल जैसा दृष्टिगोचर होगा। मनुष्य अपनी अपेक्षा स्वर्गलोक वासी देवताओं को जितना अधिक समर्थ, सुखी और साधन सम्पन्न समझता है उससे कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी स्थिति अन्य जीवधारी- मनुष्य की मानते होंगे।
👉 खेद है कि इतनी महान् उपलब्धि का हमारी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं जंचा। छोटे-मोटे राई-रत्ती जो अभाव दीखते हैं उन्हीं की चिन्ता में हम निरन्तर डूबे रहते हैं और कष्ट, कठिनाई एवं दुर्भाग्य का रोना रोते हुए समय गुजारते रहते हैं। जितना सोच-विचार अभावों का करते हैं उतना ही यदि प्राप्त सुख-सुविधाओं और साधनों पर करने लगें और अन्य जीवधारियों अथवा अपने से गई-गुजरी स्थिति के लोगों से तुलना करने लगें तो प्रतीत होगा कि जितनी सुविधा मिली हुई है उनका विस्तार इतना बड़ा है कि समुचित सन्तोष ही व्यक्त न किया जाए वरन् हर घड़ी आनंद उल्लास भी मनाया जा सकता है। किंतु हमारी अधूरी एकांगी एवं विकृत दृष्टि जीवन का प्रकाशपूर्ण पहलू आँखों से ओझल कर देती है और केवल धब्बों वाला भाग सामने रखती है जिसमें अभाव और असुविधाओं का थोड़ा-सा चित्रण है। इसी प्रश्न को हम बढ़ा-चढ़ा कर देखते रहते हैं और अपने को दीन-दुःखी अनुभव करते रहते हैं।
👉 अपनों से अधिक धनी या साधन सम्पन लोगों से अपनी तुलनाकर जो न्यूनतायें दीखें, उनके लिये रोते-कलपते रहना अथवा सुविधा सम्पन्नों से ईर्ष्या करना एक निकृष्ट और गर्हित दृष्टिकोण है । आज इसी तरह की ओछी विचारणा जन-साधारण के मस्तिष्क में घर जमाये बैठी है और अधिकांश मनुष्य दीन-दुःखी जैसी मन:स्थिति में शोक संतप्त बने हुए दिन गुजारते रहते हैं। जीवन में आनंद उल्लास का अनुभव ही नहीं होता। कैसी दयनीय स्थिति है यह। परिष्कृत दृष्टिकोण मिल सका होता तो स्थिति कुछ अन्य ही प्रकार की होती। दूसरों के साथ तुलना करने का ही जी था तो साधन वालों के साथ नहीं सद्‌गुणों और सत्प्रवृत्तियों वाले सज्जनों के साथ अपना मुकाबिला किया होता और ईर्ष्या करने की अपेक्षा वैसा ही बनने की स्पर्धा की होती तो उस बदले हुए दृष्टिकोण ने जीवन का स्वरूप ही बदल दिया होता। तब दुर्भाग्य का रोना रोने की आवश्यकता न पड़ती वरन् सन्तोष और शान्ति, आनंद और उल्लास, आशा और उत्साह का ही वातावरण अपने चारों ओर छाया दीखता ।
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग पृष्ठ-९८
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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