खाद्य एवं औषधि सुरक्षा कानून का कड़ाई से पालन जरूरी

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देश में आमजन का जीवन आज उस विडंबना से गुजर रहा है, जहां उसकी हर जरूरत-दवा, भोजन, पेयजल या सुरक्षा-बाजार और भ्रष्टाचार के शिकंजे में फँसी हुई है।

तमिलनाडु के कांचीपुरम में बनी एक कोल्डड्रिफ कफ सिरप फैक्ट्री इसका हालिया और भयावह उदाहरण है। इसी फैक्ट्री के कफ सिरप पीने से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात सहित कई राज्यों में 25 से अधिक मासूम बच्चों की मौत हो चुकी है, जबकि करीब 300 बच्चे जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहे हैं। मरने वाले अधिकांश बच्चों की किडनी फेल हुई। जांच में खुलासा हुआ कि सिरप में सामान्य हैंडपंप का पानी, खुले में पड़ा कच्चा माल, और व्यावसायिक उपयोग का केमिकल प्रयोग किया गया। जो रासायनिक तत्व केवल 0.1 प्रतिशत होना चाहिए था, वह 49 प्रतिशत पाया गया। यानी दवा नहीं, मौत बेची जा रही थी। अब सवाल उठता है कि ड्रग कंट्रोलर और ड्रग इंस्पेक्टर कहां थे ? क्या इन फैक्ट्रियों का कोई नियमित निरीक्षण हुआ?

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लाइसेंस जारी करने से पहले क्या जांच की गई? और अब तक जिम्मेदार अधिकारियों पर आपराधिक कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

यह घटना कोई अकेली नहीं। देशभर में दर्जनों दवा कंपनियां और खाद्य इकाइयां जनस्वास्थ्य को मुनाफे के सौदे में बदल चुकी हैं। हाल ही में उत्तराखंड की एक बड़ी आयुर्वेदिक कंपनी ने सरकारी खरीद के लिए 35 से 45 प्रतिशत कमीशन की पेशकश की थी। जब दवा उद्योग ही इस हद तक नैतिकता खो दे, तो फिर आम आदमी की सेहत का रक्षक कौन रहेगा? सरकार ने खाद्य एवं औषधि सुरक्षा कानून तो बनाए हैं, लेकिन उनके पालन की व्यवस्था बेहद कमजोर है। निरीक्षण, मानक निर्धारण और परीक्षण केवल फाइलों में सीमित रह गए हैं। यही कारण है कि नकली दूध, मिलावटी घी, अस्वच्छ बेकरी उत्पाद और घटिया मिठाइयां हर गली-मोहल्ले में धड़ल्ले से

बिक रही हैं। हल्द्वानी क्षेत्र में चर्चा है कि कुछ बेकरियां शवदाह के बाद बची लकड़ियों से ओवन जलाती हैं। यह सोचकर ही सिहरन होती है कि इन लकड़ियों के साथ आए जीवाणु खाद्य पदार्थों तक कैसे पहुँचते होंगे। यह जांच का गंभीर विषय है, मगर शायद ही कभी किसी ने संज्ञान लिया हो। इसी तरह फास्ट फूड और मिठाई उद्योग की यूनिटें भी बिना मानक, बिना लाइसेंस और बिना स्वास्थ्य जांच के चल रही हैं। नकली दूध, पनीर और घी बनाने वाले गांवों की चर्चा अब आम हो गई है। इन उत्पादों का उपभोक्ता वही वर्ग है जो अपनी जरूरतों के आगे विवश है-गरीब, मजदूर, सर्वहारा। बोतलबंद पानी तक सुरक्षित नहीं। अक्सर उसकी एक्सपायरी डेट इतनी महीन अक्षरों में छपी होती है कि आम व्यक्ति पढ़ भी नहीं सकता। पर क्या उसे यह मालूम है कि पीने के पानी की भी उम्र होती है? शायद नहीं। इन सबके बीच सबसे बड़ी जिम्मेदारी

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सरकार, स्वास्थ्य विभाग और प्रशासन की है। केवल कानून बना देना काफी नहीं, उसका ईमानदार क्रियान्वयन ही असली सुधार है। प्रत्येक जिले में औषधि और खाद्य निर्माण इकाइयों की स्वतंत्र और पारदर्शी जांच व्यवस्था होनी चाहिए।

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इसी प्रकार, शहरों और कस्बों में तहखानों या गैराजों में चल रही पटाखा यूनिटें और केमिकल गोदाम भी मौत के कारखाने बन गए हैं। इनसे हर साल न जाने कितने श्रमिक बिना बीमा और मुआवजे के जान गंवा देते हैं। स्पष्ट है-यह पूरा तंत्र गरीब और मध्यमवर्गीय नागरिकों के जीवन से खिलवाड़ कर रहा है। जो समाज अपने सबसे कमजोर नागरिक की सुरक्षा नहीं कर पाता, वह विकास का दावा नहीं कर सकता। आज जरूरत है उस सख्त और संवेदनशील शासन की जो सिर्फ कानून नहीं, न्याय भी लागू करे। क्योंकि आखिर में यही प्रश्न गूंजता है-सर्वहारा को आखिर किसका सहारा ?

नवीन दुम्का, पूर्व विधायक,

लालकुआं

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