आज का ऋषि चिंतन:वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के विचार

🥀// १६ मई २०२५ शुक्रवार //🥀
//जयेष्ठकृष्णपक्ष चतुर्थी२०८२//
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‼ऋषि चिंतन‼
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हमारे दुःखी रहने का कारण हम स्वयं
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👉 साधारण मनुष्य का बेटा जब अपने पिता की संपत्ति का स्वामित्व पाता है, तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता । सबके सामने अकड़कर शान के साथ चलता है। उसे न किसी का भय होता है और न कोई अभाव। तो फिर जिसे “परमात्मा” का उत्तराधिकार मिल जाए तो उसकी प्रसन्नता, निर्भयता, वैभव तथा ऐश्वर्य का तो कहना ही क्या। वह चाहे तो सारे संसार के सामने ऐंठकर, अकड़कर चल सकता है। उसे भय और अभाव हो भी कहाँ सकता है?
👉 मनुष्य स्वभावतः अधोगामी है। इस दृष्टि से यह नियंत्रण रखना जरूरी भी था, पर ईश्वर “न्यायकारी” भी है, उसने “आत्म-कल्याण” का मार्ग किसी के लिए भी अवरुद्ध नहीं किया। वह साधन सबको समान रूप से मिले, जिनके माध्यम से मनुष्य अपने लौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के उद्देश्य पूरे कर सकता है।
👉 वायु, जल, प्रकाश, मेघ आदि का उपभोग सब समान रूप से करते हैं। विचार, अनुभव, स्मृति, दर्शन, श्रवण आदि के साधन भी प्रायः सभी को एक समान ही मिले हैं। इनके द्वारा मनुष्य यदि चाहता, तो आत्म-विकास कर सकता था, पर उसने किया कहाँ? सब कुछ देखते हुए भी मनुष्य अज्ञान बना रहा। घटनाएँ कई बार घटीं, घटती रहती हैं, पर उसने कभी विचार करना नहीं चाहा। इसी कारण वह अपनी वर्तमान स्थिति से ऊपर उठ भी नहीं सका।
👉 लोग कहा करते हैं कि जीव जब माता के गर्भ में बंदी की-सी स्थिति में पड़ा होता है, तब वह परमात्मा से अनेक प्रकार की विनती करता है। वह चाहता है कि इस जन्म-मरण के फंदे से जितनी जल्दी छुटकारा मिले, बंधन-मुक्ति मिले उतना ही अच्छा है। इसके लिए यह तरह-तरह की प्रार्थनाएँ करता है, किंतु जन्म लेने के बाद इस संसार की हवा लगते ही वह सब भूल जाता है और फिर वही शिश्नोदर परायण जीवन जीने में लग जाता है।
👉 लोगों की भूल यह है कि वे अपने आप को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार करना नहीं चाहते। विज्ञान का सहारा लेकर लोग प्रत्यक्षवाद की दुहाई देते हैं, किंतु यह खुला हुआ संसार क्या कम प्रत्यक्ष है. मृत्यु-जन्म की घटनाएँ क्या कम प्रत्यक्ष हैं? जन्म, जरा, यौवन का पाना और खो देना भी किसी को विचार प्रदान नहीं कर सकता क्या?
👉 ईश्वर का पुत्र होने के नाते मनुष्य असीम आध्यात्मिक शक्तियों और दैवी संपदाओं का स्वामी बन सकता है, किंतु वह अपने को इस स्थिति वाला मानता कब है? अपनी इस धृष्टता के कारण मनुष्योचित आधार से भी पतित होकर दुष्कर्म करता है। अपने स्वार्थ के लिए औरों के अधिकारों का अपहरण करता है। खुद का पेट भरे ठूंस के, दूसरा चाहे भूख से मर जाए, अपना घर भर जाए, दूसरे चाहे कानी कौड़ी के लिए तरसते रहें। इतना ही नहीं, वह अपने से गई-गुजरी स्थिति वालों के साथ पैशाचिक उत्पीड़न करता है, दूसरों का खून पीता और अट्टहास करता है। ऐसे दुष्ट पुत्र को परमात्मा अपनी शक्तियाँ देता कैसे ? उसे तो दंड ही मिलना चाहिए था और वही मिलता भी है।
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जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्म-ज्ञान पृष्ठ-३३
🪴 पं. श्रीराम शर्मा, आचार्य🪴
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