ऋषि चिंतन : क्या है आत्मा की अनुभूति पढ़िए युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा जी के विचार

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🥀// ०८ मई २०२५ गुरुवार //🥀
//वैशाख शुक्लपक्षएकादशी२०८२//
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‼ऋषि चिंतन‼
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“आत्म-ज्ञान” की अनुभूति कैसे हो ?
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👉 “आत्मा” का स्वाभाविक स्वरूप अत्यंत शुद्ध, पवित्र, अलौकिक और दिव्य है। उसकी अंतिम अवस्था धर्माचरण और ईश्वर साक्षात्कार है। यह शरीर के माध्यम से “ज्ञान” और “प्रयत्न” करने से मिलती है। शरीर को जब एक विशिष्ट उपकरण मानकर इंद्रियों की दासता से ऊपर उठते हैं, तो स्वयं ही “आत्मानुभूति” होने लगती है। जो आदमी इस सत्य को गहराई तक अपने हृदय में बिठा लेता है, वह नाशवान वस्तुओं के अनुचित मोह को त्यागकर आत्मिक पवित्रता की ओर अग्रसर होता है। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि अनात्म तत्त्वों से उसकी रुचि हटने लगती है। विचारों और व्यवहारों में पवित्रता उत्पन्न होती है। जितना वह “आत्म-साक्षात्कार” के समीप बढ़ता है, उसी अनुपात में “दैवी गुणों” का उसमें समावेश होता चलता है। फलस्वरूप सच्चे सुख, शांति और संतोष के परिणाम भी सामने आते रहते हैं।
👉 “आत्म-ज्ञान” प्राप्त करने के लिए बड़े उपकरणों या अधिक-से-अधिक स्कूली शिक्षा की ही आवश्यकता नहीं। कोई भी व्यक्ति जो अपनी सामर्थ्यो या विशेषताओं की विवेचना कर सके वह आत्म-ज्ञानी हो सकता है। इसके लिए “आत्म-निरीक्षण” की आदत बनानी पड़ती है। यह कार्य ऐसा नहीं जो हर किसी से किया न जा सके। अपनी भूलों, त्रुटियों और आदत में प्रविष्ट बुराइयों को अपने में दृढ़तापूर्वक खोजना और उन्हें दूर हटाना हर किसी के लिए संभव है। सन्मार्ग पर चलते हुए रास्ते में जो अड़चनें, बाधाएँ और मुसीबतें आती हैं, उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करते रहने से अपनी समस्त चेतना का रुख आत्मा की ओर उन्मुख होने लगता है। जैसे बंदूक की गोली को शक्तिपूर्वक दूर तक पहुँचाने के लिए उसे छोटे-से-छोटे दायरे से गुजारा जाता है, वैसे ही अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को एक ही दिशा में लगा देने से उधर ही आशातीत परिणाम दिखाई देने लगते हैं। जब तक अपनी मानसिक चेष्टाएँ बहुमुखी होती हैं, तब तक विपरीत परिस्थितियों से टकराते हैं, किंतु जब एक ही दिशा में दृढ़तापूर्वक चल पड़ते हैं, तो ध्येय प्राप्ति की साधना भी सरल हो जाती है।
👉 किसी विषय को जब तक मनुष्य भली-भाँति समझ नहीं लेता, तब तक उससे झिझकता रहता है। घने अंधकार में जाने से सभी को भय लगता है, किंतु यदि उसी अंधकार में जाने के लिए हाथ में मशाल दे दी जाए, तो अज्ञानता का भय अपने आप दूर हो जाता है। “आत्मिक ज्ञान” के प्रति भय तथा उपेक्षा और उदासीनता का कारण यही होता है कि अपना जीवनलक्ष्य निर्धारित नहीं करते। अनंत शक्तियों का केंद्र होते हुए भी मनुष्य इधर से जितना उदासीन रहता है, उतना ही दुःख और अभाव उसे घेरे रहते हैं।
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जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्म-ज्ञान पृष्ठ-१२
🪴 पं. श्रीराम शर्मा, आचार्य🪴
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