प्रसंगवश: पलायन का असर पहाड़ की रामलीला पर भी
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पर्वतीय क्षेत्र में राज्य बनने के बाद भी पहाड़ जैसी समस्याएं कम नहीं हुई है कहीं दरकते पहाड़ , कहीं दिन पर दिन कम होते जा रहे जल स्रोत ,जंगलों में लगने वाली भयानक आग स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव शिक्षा के मंदिरों का काफी दूर-दूर होना इन तमाम परेशानियों का सामना कर रहे लोगों के पास सिर्फ पलायन ही एक जरिया बना लोगों ने पहाड़ से पलायन किया और अपने साथ-साथ अपने बच्चों को बेहतर सुख सुविधा उपलब्ध कराने के लिए क्षमता अनुसार मैदानी क्षेत्रों में शहरों में बसावट शुरू की पलायन का दंश झेल रहे लोगों को कभी-कभी अतीत की यादें झकझोर कर रख देती हैं ऐसे अपनी अतीत की यादों को साझा करते हुए पूर्व ग्राम प्रधान देवीदत्त लोहनी कहते हैं कि उनके पहाड़ में 1964 से लेकर 2003 तक रामलीला चली लेकिन पलायन का ऐसा दौर शुरू हुआ कि गांव के गांव खाली हो गए और अब 2003 से लेकर अब तक रामलीला का मंचन भी बंद हो गया है देवी दत्त लोहनी जो एक छोटे व्यवसायी हैं उनका कहना है कि उनका मूल गांव हवालबाग विकासखंड के ज्योली गांव में है जो जनपद अल्मोड़ा अंतर्गत आता है उनके गांव में लगभग आसपास के 40 गांव के लोग रामलीला देखने आते थे जिसमें कनोली कटारमल खड़कोना उज्याडी ,क्वैराली, बिनकोट, ढैली ,कुरचोना, स्यूना, बिसरा ,पथरकोट आदि के ग्रामीण बड़े उत्साह के साथ रामलीला देखने आते थे उनका कहना है कि रामलीला ग्राउंड के चारों ओरलोग लालटेन टांगा करते थे जिससे उजाला होता था एक दूसरी मेंटल युक्त लालटेन भी हुआ करती थी जो पंपिंग कर बहुत अच्छा उजाला देती थी उसे भी रोशनी के लिए रखा जाता था
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उन्होंने कहा कि उस दौर में लोग रामलीला देखने के लिए परस्पर एक दूसरे को निमंत्रण देने जाते थे और मसाल लेकर या चीड़ के छिलके लेकर अंधेरी रास्तों में उजाला किया करते थे वह दौर ऐसा था जब हर किसी को रामलीला का इंतजार होता था बच्चे रात को रामलीला देखने जाते थे और दूसरे दिन घर में खुद अभिनय करते थे उनके गांव में करीब 39 साल तक अनवरत चली रामलीला का सफर 2003 आने आने तक समाप्त हो गया उनका कहना है कि पहाड़ में आज भी पहाड़ जैसी समस्याएं हैं कई गांव ऐसे हैं जहां सड़कों का अभाव है शिक्षा स्वास्थ्य की बात करना बेमानी होता है यदि सरकार इस दिशा में ठोस नीति बनाई तब पलायन पर रोक लग सकती है और फिर से जो पहाड़ में परंपराएं चली आ रही थी पुनर्जीवित की जा सकती हैं जय सीताराम
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