जानिए क्या है आत्मज्ञान एवं मोक्ष

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आत्मज्ञान एवं मोक्ष
वास्तविकता के ज्ञान हेतु आंतरिक दृष्टि का जागृत होना अथवा आत्मज्ञान आवश्यक है। नित्यानंद प्राप्त करने तथा उच्च से उच्च आध्यात्मिक स्तर की ओर बढ़ना ,मोक्ष प्राप्ति का साधन पद है ।मनुष्य की जागृति, स्वप्न तथा गहरी निद्रा से भी एक भिन्न अवस्था होती है, जिसमें शरीर बोध का ज्ञान नहीं के बराबर होता है और साधक परम आनंद की अनुभूति करता है ।ऐसी स्थिति में समस्त इच्छाओं का दमन स्वतः ही हो जाता है ,इसे तुरीय अवस्था कहते हैं ।
ज्ञान से युक्त व्यक्ति कछुए की भांति अपनी समस्त इच्छाओं को समेट कर स्थिर अवस्था प्राप्त करता है और उसके लिए दिन-रात का अंधकार एवं प्रकाश का अंतर समाप्त हो जाता है ।वह सदैव सूर्योदय की जैसी स्थिति में रहता है क्योंकि उसकी आंतरिक ज्योति ,जो आत्म स्वरूप है ,सदैव चमकता रहती है ।इस प्रकार इच्छाओं को समेट कर आत्मा की ज्योति का प्राप्त होना योग साधना के लिए एक प्रसस्थ मार्ग है ।शांत चित्र व्यक्ति सम भाव में रहते हुए सुख-दुख, उच्च नीच ,सम विषम व्यवहार में समरसता में जीता है। और आनंद का अनुभव करता है ।
ज्ञान प्राप्त की कोई निश्चित आयु सीमा नहीं है ।युवा हो अथवा वृद्ध कोई भी किसी क्षण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उनके लिए आयु का कोई बंधन नहीं है। किसी भी क्षण अपने मोक्ष रूपी लक्ष्य में संलग्न हुआ जा सकता है और व्यवस्थित क्रम में साधना रत रहते हुए मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है। व्यक्ति का ज्ञान ही उसे उच्च लक्ष्य तक ले जा सकता है ।ज्ञान से ही महा ज्ञान जन्म लेता है ,जिसे ब्रह्म ज्ञान भी कहते हैं ।जो ज्ञान ईश्वर की प्राप्ति का रास्ता भी प्रशस्त करता है ,वही महा ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान है ।और वह उत्तम है ।मात्र आत्मज्ञान से ही व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त हो सकता है ।यदि उसके क्रियाकलाप बिना किसी इच्छा के या फल के हैं तो कोई भी बंधन उसे बंधन युक्त नहीं कर सकता है ।बिना आत्मज्ञान के यह शरीर अंधकार पूर्ण घर की तरह है ,ज्ञान प्रकाश निरंतर योग साधना करने पर ऊपर की ओर प्रवाहित होकर कुंडली शक्ति को जागृत करता है। आत्मज्ञान प्राप्त होते ही माया अदृश्य हो जाती है ,क्योंकि ज्ञान से हर वस्तु की वास्तविकता प्रकट होती है ,और इच्छाओं का तत्काल दमन होता है ।बिना ज्ञान के किया हुआ कार्य अकरम है ।
आध्यात्मिक ज्ञान या आत्मज्ञान आंतरिक और उच्च ज्ञान है। एक व्यक्ति जो दृढ़ता से स्वयं में व्यवस्थित हो जाता है ,उसका पुनर्जन्म नहीं होता है ।ऐसा व्यक्ति घृणेद्रीय के बस में नहीं रहता है। इच्छाएं उसे प्रभावित नहीं कर सकती हैं ।मस्तिष्क उसका शांत रहता है ।और सम भवायुक्त होते हुए हर क्षण दिव्य आनंद का अनुभव करता है। सदैव एक व्यवस्थित क्रम में साधना रहित रहते हुए ,मोक्ष की प्राप्ति करता है ,यही व्यक्ति संतोषी और ज्ञानी कहलाता है ।
माया से बचना योग साधक के लिए आवश्यक है। माया ईश्वर रचित प्रकृति का वह रूप है, जिसमें व्यक्ति भ्रमित रहता है। ज्ञान की अवस्था इस मायाजाल का विनाश करने में सक्षम है और मस्तिष्क को शांत पथ पर ले जाता है ।माया ही अविद्या है, जिसमें व्यक्ति बार-बार भ्रमित होता रहता है ।माया भ्रम के विनाश होते ही आत्मा रूपी सूर्य चमकने लगता है और माया रुपी बादल है जाते हैं ।
साधक को उसका अथक परिश्रम माया के भ्रम से उसे दूर ले जाता है और बाद में माया का उस पर प्रभाव नहीं होता है। क्योंकि उसका आत्मज्ञान जागृत हो चुका होता है, और यह उसे अध्यात्म पथ पर अग्रसर करता रहता है ।शांत मस्तिष्क के साथ वह उच्च आध्यात्मिक अवस्था अर्थात तुरिय अवस्था प्राप्त करता है। इस अवस्था को ही आत्मा का परमात्मा से मिलन कहा जाएगा ।इस स्थिति में साधक स्वयं ब्रह्म हो जाता है ।
व्यक्ति का जन्म ही बंधन युक्त और माया से पूर्ण है। मोक्ष दाई आत्मा के लिए जन्म और मरण का कोई महत्व नहीं है ।अपने प्रारब्ध के साथ जन्मा व्यक्ति कर्मों के कारण ही माया के जाल में फंसकर इस भवसागर में तैरता रहता है ।और माया के प्रभाव से ही अधोगति प्राप्त करता है ।यदि वह साधक होकर अपने आत्मज्ञान के माध्यम से तैरना सीख लेता है, तो माया के प्रभाव में न पढ़कर इस भवसागर से पार हो जाता है और कर्म बंधन से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है।

लेखक जीवन चंद्र उप्रेती पूर्व अपर सचिव लोकायुक्त उत्तराखंड हैं तथा वर्तमान में भारत की लोक जिम्मेदार पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं एवं फाइनल कॉल समाचार पत्र के उत्तर प्रदेश प्रभारी हैं

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