ज्ञान, वैभव व शक्ति प्रदान करती है काली मठ की महाकाली, विद्वान आचार्य डॉक्टर अखिलेश चमोला का आलेख

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पूरे विश्व में सदियों से ही उत्कातराखंड का वातावरण शान्ति मय रहा है।जिस कारण से ऋषि मुनियों ने यहां पर तपस्या करके आध्यात्मिक सत्ता के साथ आत्म सात किया है। शास्त्रों में इस तरह का वर्णन भी देखने को मिलता है कि ऋषि मुनियों तथा देवताओं की तपस्या भंग करने के लिए आसुरी शक्ति ने भी यहां पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए उपद्रव मचाना शुरू किया।इसी तरह की आध्यात्मिक शक्ति के रूप में काली मठ की विशिष्टता का भाव उजागर होता है।जो कि ऋषिकेश, बद्रीनाथ हाइवे से रूद्रप्रयाग तक120किमी यहां से गौरीकुंड हाइवे गुप्तकाशी 42किमीऔर गुप्तकाशी से 20किमी सरस्वती नदी के तट पर स्थित है।इस मठ की गणना भारत के सर्वश्रेष्ठ मठों में की जाती है।


देवी भागवत पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इस क्षेत्र में दो राक्षसों ने अपना दबदबा बना दिया था।जो शुम्भ निशुंभ के नाम से जाने जाते थे।ये दोनों असुर बड़े ही बलशाली थे। इस कारण से बड़े उन्मत्त होकर वहां की जनता का उत्पीडन करते रहते थे। धीरे-धीरे अपनी निरंकुशता के चलते इन्होंने देवताओं को भी कष्ट देना शुरू कर दिया। इनका प्रभाव इतना बढ़ गया कि देवता भी इन्हें देखकर घबराने लगे। अन्ततः सभी उपायों से थककर ये देवी के शरण में गए। मां की घनघोर तपस्या करने लगे। मां भगवती ने देवताओं की कठोर तपस्या से खुश होकर देवताओं को दर्शन देकर कहा -मै तुम्हारी तपस्या से खुश हूं। जनकल्याण हेतु मुझसे वर मांगिए।

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देवताओं ने कहां -आप से कोई भी बात छिपी हुई नहीं है।शुम्भ निशुंभ के आतंक से तीनों लोक भयभीत हैं। इनसे हमारी रक्षा करो। मां भगवती ने कहा -जनहित के लिए में इन उन्मत्त दैत्यों का संहार अवश्य करुंगी। मां काली ने शुम्भ निशुंभ का संहार करके उनके दोनों सिर काली मठ की कुण्डी में गाड़ दिए। आज भी मन्दिर के अन्दर कुण्डी के रूप में पूजा की जाती है। अष्टमी की रात्रि को यह कुण्डी खोल दी जाती है। सुंदर सुसज्जित परिधान में मां भगवती का दिव्य स्वरूप भक्तों के दर्शन हेतु बाहर लाया जाता है। चारों ओर मां की किरणों का प्रकटीकरण होने लगता है।पूरे भारत वर्ष में काली मठ ही इस तरह का मन्दिर है जहां माता लक्ष्मी और सरस्वती, काली माता की एक साथ पूजा अर्चना की जाती है।
मान्यता है कि यहां पर ऋषि ब्रह्मा,विष्णु,महेश तथा चौरासी हजार ऋषि मुनियों ने भी मां काली की आराधना की। मां काली ने यहां पर रक्त बीज का बध भी किया।रक्त बीज को यह बरदान प्राप्त था कि रक्त की एक भी बूंद जमीन पर गिरने पर हजारों रक्त बीज पैदा होंगे। मां काली ने रक्तबीज के सम्पूर्ण रक्त का रसपान किया। इस कारण मां भगवती को रक्त प्रिया भी कहा जाता है।रक्त बीज और असुरों का संहार करने के बाद यह स्थान मां काली का सिद्ध क्षेत्र माना जाता है। यहां पर सच्ची श्रद्धा से मां काली का उच्चारण करने मात्र से मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। शास्त्रों में कहा गया है कि -अनन्ताकाश में चतुर्भुज रूप से परिणित होकर वहीं विश्व का संहार करती है। इसी का प्रतीक मां भगवती की चार भुजाएं हैं। संसार का प्रतीक खड्ग है। नष्ट प्राणियों का प्रतीक कटा हुआ मस्तिष्क है।अभय पद की प्राप्ति उसी की आराधना पर निर्भर करती है।इसी का प्रतीक अभय मुद्रा है।वही वर प्रदान करके साधक की इच्छा पूर्ण करतीं है।इसका प्रतीक वर मुद्रा है।इस भीषण युग में मां काली ही मानव का कल्याण करती है। नवरात्रि में यहां मां के दर्शन के लिए देश विदेश के यात्रियों का तांता लगा रहता है। वैसे सामान्यतः भी भक्त जन अपनी मनोकामना हेतु मां के चौखट पर आते रहते हैं।
कालीमठ के पास ही कविल्टा गांव है।कहां जाता है कि कालीदास ने भी यहां पर मां काली की यहां पर अघोर तपस्या की। मां काली की कृपा से कालीदास कवि कुल गुरु व संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने यहीं बैठकर मेघदूत की रचना कर डाली।काली मठ तन्त्र साधना के लिए भी महत्वपूर्ण स्थल माना जाता है। यहां पर की गई तन्त्र साधना का फल जल्दी मिल जाता है। यहां से लगभग 8 किमी की चढ़ाई पर काली शिला स्थित है। जहां पर मां भगवती के 64यन्त्र है। मान्यता है कि इस चढ़ाई पर चढ़ते हुए मां काली का ध्यान करके चढ़ाई का पता भी नहीं चल पाता। उत्साह का संचार पैदा होने के साथ ही सम्पूर्ण शरीर रोमांचित होने लगता है।इस शिला पर जो भक्त तीन दिन तक साधना करता है,वह भय मुक्त होकर राजाओं की तरह जीवन यापन करता है।
/लेखक मां काली प्रसिद्ध उपासक के साथ ही स्वर्ण पदक, ज़िला धिकारी रजत प्लेट, महामहिम राज्यपाल पुरस्कार से सम्मानित हैं/

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