आस्था की त्रिवेणी: यहां मां सरस्वती, मां लक्ष्मी के साथ विराजमान है माता महाकाली

आस्था का प्रमुख केंद्र है रूद्रप्रयाग स्थित कालीमठ मंदिर
काली शिला में मौजूद हैं मां काली के पैरों के निशान
कालीमठ मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है, बल्कि यहां की जाती है कुंड की पूजा
रूद्रप्रयाग। देवभूमि उत्तराखंड अपनी चमत्कारी धार्मिक स्थलों और देवताओं के रहस्यों के लिए प्रसिद्ध है। इन रहस्यों में एक प्रमुख स्थान है रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ की चोटियों से घिरा हुआ प्रसिद्ध कालीमठ मंदिर, जो हिमालय के बीच सरस्वती नदी के किनारे स्थित है। यह शक्तिपीठ समुद्रतल से 1463 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और भारत के प्रमुख सिद्ध शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। कालीमठ मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि तंत्र साधना के लिए भी एक प्रमुख स्थल है, जो कामाख्या और ज्वालामुखी के समकक्ष माना जाता है।

कालीमठ मंदिर में देवी काली की पूजा होती है, और यह स्थान विशेष रूप से तंत्र और साधना के लिए महत्वपूर्ण है। स्कंद पुराण के केदारनाथ अध्याय में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। मंदिर के 8 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित काली शिला वह स्थान है, जहां देवी काली के पैरों के निशान पाए जाते हैं। काली शिला के बारे में मान्यता है कि यहां मां दुर्गा शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज का वध करने के लिए 12 वर्ष की बालिका रूप में प्रकट हुई थीं। काली शिला पर देवी काली के 64 यंत्र स्थित हैं, और माना जाता है कि इन्हीं यंत्रों से देवी को शक्ति प्राप्त हुई थी। साथ ही, यह विश्वास भी है कि इस स्थान पर देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी, जिसके बाद मां काली ने विकराल रूप धारण कर दैत्यों का वध किया। कालीमठ मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है, बल्कि यहां कुंड की पूजा की जाती है, जो रजतपट श्री यंत्र से ढका रहता है। यह कुंड केवल शारदीय नवरात्रि के अष्ट नवमी के दिन खोला जाता है, और पूजा मध्य रात्रि में होती है, जिसमें केवल मुख्य पुजारी ही उपस्थित होते हैं। कालीमठ मंदिर में मां काली के अलावा महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती के तीन अलग-अलग मंदिर भी हैं। जहां महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती की पूजा होती है। यह स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां मां काली अपनी बहनों मां लक्ष्मी और मां सरस्वती के साथ विराजमान हैं।
कालीमठ मंदिर के समीप रक्तबीज शिला स्थित है, जहां देवी काली ने रक्तबीज का वध किया था। इस शिला पर यह विश्वास है कि दशहरा के दिन रक्त (खून) निकलता है, जो आज भी श्रद्धालुओं के लिए एक चमत्कारी प्रतीक है। किवदंती के अनुसार, जब देवी काली ने रक्तबीज का वध किया, तब उनका शरीर क्रोध से काला हो गया था और उन्होंने विकराल रूप धारण कर असुरों का संहार किया। इसके बाद भगवान शिव ने मां काली के क्रोध को शांत किया, और वे यहां अंतर्ध्यान हो गईं।

कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना शंकराचार्य ने की थी। एक दिलचस्प बात यह है कि कालिदास, जो भारतीय इतिहास के अद्वितीय लेखक माने जाते हैं, ने अपनी विद्वता को प्राप्त करने के लिए इसी स्थान पर मां काली की साधना की थी। उनके द्वारा लिखे गए प्रसिद्ध काव्य मेघदूत और अन्य ग्रंथों की प्रेरणा भी उन्हें यहां के कालीमठ मंदिर से मिली थी।
कालीमठ मंदिर तक पहुंचने के लिए सबसे पहले रुद्रप्रयाग से गौरीकुंड हाईवे के जरिए 42 किमी की दूरी तय करके गुप्तकाशी पहुंच सकते हैं। गुप्तकाशी से सड़क मार्ग के जरिए कालीमठ मंदिर की दूरी 8 किलोमीटर है, जहां टैक्सी या बस द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है।
कालीमठ मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह एक शक्तिपीठ के रूप में शक्ति, भक्ति और साधना का प्रतीक भी है। हर वर्ष नवरात्रि के दौरान यहां भक्तों का तांता लगा रहता है, और श्रद्धालु मां काली के आशीर्वाद के लिए दूर-दूर से आते हैं। यह स्थान आज भी शक्ति की महिमा और चमत्कारों का प्रतीक बना हुआ है, जहां हर श्रद्धालु की मनोकामना पूरी होने की विश्वास के साथ पूजा की जाती है।
