ऋषि चिंतन : वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी का आलेख आरोग्य प्राप्ति का नियम

🌴।।३० जून २०२५ सोमवार।।🌴
//आषाढ़शुक्लपक्ष पंचमी२०८२ //
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‼️ऋषि चिंतन ‼️
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❗आरोग्य प्राप्ति के कुछ नियम ❗
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👉 “चित्त” को हर घड़ी प्रसन्न रखा जाए। जिंदगी को खेल की तरह जिया जाए। हर काम “उत्साह” और “मनोयोग” के साथ किया जाए, पर सफलता असफलता से अत्यधिक उद्विग्न न बना जाए। तैयारी बड़ी से बड़ी करें, किंतु असफलता हाथ लगने पर संतुलन बनाए रखने की मनःस्थिति भी रखे रहें। मन पर छाए रहने वाले निराशा, भय, आशंका, भीरुता, आत्महीनता, संकोच जैसे अवसाद और क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, चिंता, उद्विग्नता, कामुकता जैसे आवेश केवल हानि ही हानि करते हैं। ज्वार-भाटों की तरह मन को उछलने, गिरने न देना चाहिए। इसमें बहुमूल्य मनःशक्ति का दुरुपयोग होता है और प्रगति के लिए रचनात्मक चिंतन करने की क्षमता भी नष्ट हो जाती है। मनोविकारों से उत्तेजित मस्तिष्क से अगणित शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। वासना, तृष्णा, और अहंता की मात्रा जितनी बड़ी-चढ़ी होगी मस्तिष्क में उतनी आग जलेगी और उतनी ही अशाँति रहेगी। जो है उससे प्रसन्न, अधिक पाने के लिए उत्साह पूर्वक प्रयत्न किया जाए, किंतु अभीष्ट लाभ न मिलने पर खिन्न होने की आदत न डाली जाए। “सादगी”, “सच्चाई”, “ईमानदारी”, “सज्जनता”, “सहृदयता”, “प्रसन्नता” भरा स्वभाव बना लेना और मानसिक संतुलन बनाए रखना बहुत बड़ा गुण है, जिसके आधार पर जीवन को सफलतापूर्वक जिया जा सकता है और आनंदित रहा जा सकता है। ऐसी स्थिति रहने पर शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्वास्थ्य की दृष्टि से अक्षुण्ण बना रहता है। महत्वाकाँक्षा, जिम्मेदारी एवं आवश्यकताएँ उतनी ही बढ़ाई जाएँ, जितनी वर्तमान स्थिति के अनुरूप हों। अधिक बच्चे पैदा करने और इतनी अधिक लंबी चौड़ी योजना बनाना जिसका ताल-मेल वर्तमान स्थिति के साथ न बैठता हो, जीवन क्रम में स्वास्थ्य को नष्ट करने का मार्ग ही कहा जा सकता है। हलकी-फुल्की, हँसती-हँसाती, प्रसन्न, संतुष्ट, उत्साहित, आनंदित और आशान्वित जिंदगी जीने की रीति-नीति अपनाई जाए तो गरीबी और कठिनाइयों के रहते हुए भी आनंद, उल्लास भरा निरोग जीवन जिया जा सकता है।
👉 “स्वास्थ्य संरक्षण” के लिए “नैतिक” और “सामाजिक” मर्यादाओं का पालन आवश्यक है। दुष्टता, अनीति और उच्छृंखलता अपनाने वाले व्यक्ति भरपूर सुख-सुविधाओं के रहते हुए भी आत्म-प्रताड़ना सहते रहते हैं और शोक संताप भरा जीवन जीते हैं। आहार-विहार से स्थूल शरीर का-संतुलन और सत् चिंतन से सूक्ष्म शरीर का एवं सौजन्य सद्भाव से कारण शरीर का स्वास्थ्य संरक्षण होता है। मात्र हाड़-माँस का शरीर ही संपूर्ण आरोग्य का केंद्र नहीं है। जीवात्मा के तीनों ही शरीर समग्र स्वास्थ्य की संरचना करते हैं। अस्तु नैतिक एवं उदार जीवन-क्रम अंतरात्मा को सबल रखता है और उसके आधार पर मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा होती है। चरित्र और समाज निष्ठ रहने वाले सदाचारी एवं उदार लोक सेवी प्रकृति के मनुष्य ही सम्मान पाते हैं, प्रसन्न, संतुष्ट और प्रफुल्लित रहते हैं, लोक-परलोक सुधारते हैं और जीवन लक्ष्य पूरा करने में सफल होते हैं। शारीरिक आरोग्य तो अंतःकरण की उत्कृष्टता का सामान्य सा सहज प्रतिफल मात्र है।
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सात्विक जीवनचर्या और दीर्घायुष्य पृष्ठ ०८
🍁पं श्रीराम शर्मा आचार्य🍁
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