ऋषि चिंतन: वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी का सारगर्भित प्रवचन

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🔥🌷👏🏻शुभ प्रभात👏🏻🌷🔥
आत्म-तत्त्व का अवलंबन
आत्मज्ञान ही मनुष्य का सबसे बड़ा गौरव है। जो उस दिशा में उन्मुख होता, अन्तर्मुखी बनता, अपने भूत और भविष्य को ध्यान में रखते हुए वर्तमान का निर्धारण करता है- वह आत्मावलम्बी मनुष्य प्रगति-पथ पर द्रुतगति से बढ़ चलता है। इसमें उसे फिर कोई कठिनाई शेष नहीं रहती। जो इस अवलम्बन की उपेक्षा करते हैं, वे आत्महन्ता लोग दुःख-दारिद्रय के भागी बनते हैं। पद-पद पर तिरस्कार सहते और नारकीय यन्त्रणायें भुगतते हैं, साथ ही सद्गति को प्राप्त नहीं कर पाते।मनुष्यों को औरों की अपेक्षा अधिक बुद्धि, विद्या, वैभव, बल, विवेक मिला है। यह बात तो समझ में आती है किन्तु इन शक्तियों का सम्पूर्ण उपयोग बाह्यजीवन तक ही सीमित रखने में उसने बुद्धिमत्ता से काम नहीं लिया। अर्जित कौशल एवं ज्ञान को उसने मात्र शारीरिक सुखोपभोग तक सीमित रखा है। सारे दुःखों का कारण भी यही है कि हम अपने शाश्वत स्वरूप आत्मतत्व को जानने का कभी प्रयास भी नहीं करते। अपने शरीर को भी नहीं पहचान पाये तो इस शरीर का, बौद्धिक शक्तियों का क्या सदुपयोग रहा ?जो भी व्यक्ति आत्म-तत्व का अवलम्बन लेने के लिये अपने अन्दर की गुफा में झाँकता है तो उसे अपार वैभव- सम्पदा सामग्री बिखरी दिखाई पड़ती है। आत्मावलम्बन का ही चमत्कार है कि मनुष्य अपने विगत के घटनाक्रमों को दृष्टिगत रख भविष्य की योजना बनाता व वर्तमान का निर्धारण सफलतापूर्वक कर पाता है।
आशीर्वाद –
पं.श्री राम शर्मा आचार्य
‘प्रज्ञोपनिषद्’ 1.17 से

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