आज्ञा चक्र में शक्ति अथवा प्रकृति का मिलन ही महा मिलन कहलाता है पढ़िए योग गुरु जीवन चंद्र उप्रेती का आलेख
साधना का रहस्य
समस्त आत्मा एक ही है ।अथवा कोई भी धर्म या मतावलंबी व्यक्ति को योग, आत्मा की उन्नति के साथ मोक्ष प्राप्त होता है। ग्रहस्थ आश्रम सबसे श्रेष्ठ आश्रम माना गया है। क्योंकि यह ब्रह्मचर्य,वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम का भरण पोषण करता है ।यह महान कर्म योग ही महात्माओं के जीवन की प्रधान एवं गुप्त कुंजी रही है
श्वास प्रवासरूपी वायु जो वाहिमुखी है ,काम ,क्रोध ,मद, लोभ की जन्मदात्री है, व्यक्ति को माया के संसार में विचरण करने और उसमें लिप्त रहने के लिए मजबूर करती है ।यदि वाहिमुखी प्रवृत्ति को अंतर्मुखी कर दिया जाए तो चित वृतियां निरोध के कारण माया संसार से विरक्ति स्वतः प्रारंभ हो जाती है और आत्म दर्शन होने लगता है। ओंकार क्रिया द्वारा ॐ के ठोकर से हृदय मंदिर का मुख्य फाटक खोलना आवश्यक है ,इससे हृदय ग्रंथि का भेदन होने के कारण अज्ञानता दूर होती है। ठोकर क्रिया के करते-करते रहने से एक गहरा नाश होगा और मन की स्थिरता होगी ।
वर्तमान में मनुष्य का मन केवल तर्क एवं संशय से आक्रांत है, ऐसे में आत्म दर्शन या भगवत दर्शन दुर्लभ है ।लेकिन योग क्रिया, जो एक वैज्ञानिक क्रम है, से मन की चंचलता शांत हो जाती है। हमारे एवं तुम्हारे भीतर जीवात्मा एवं परमात्मा एकाकार है ।आत्मा ही गुरु है। भक्त और भगवान के एकाकार की स्थिति ही स्थाई भक्ति की यथार्थ भूमि है।अंतर्मुखी प्रवृत्ति ही आत्मबोध करने में सक्षम है।कूटस्थ के मध्य जो विंदुवत गुहा है, उसमें मन का प्रवेश ही चिंतन प्रत्यक्ष की अनुभूति है। प्राण कर्म किए जाओ स्वयंमेव ही योगी की भांति कूटस्थ के दर्शन होंगे ।
कूटस्थ के मध्य जो बिंदु स्वरूप अणु है उसका परिणाम एक बाल या केस के अगले हिस्से के हजारवें के एक हिस्से का आधा भाग या हिस्सा है ।उसका आधा भाग अर्थात केसाग्र के 4000 भाग का एक आधा। वह ब्रह्मांड या ब्रह्म का अणु इतना सूक्ष्म है कि उसे दृष्टि द्वारा समझाने का कोई उपाय नहीं है। उसके लिए अव्यक्त पद प्राप्त के बिना अथवा जीव का शिव हुए बिना बोध नहीं होता है ।
मन तथा प्राण इन दोनों की सत्ता को समान रूप से अध्यात्म में गतिशील और स्थिति सील किया जा सके तो यथार्थ भक्ति , भक्ति एवं भगवत प्राप्ति संभव है। किंतु यह दीर्घ या लंबी साधना के बिना संभव नहीं है। प्राण की चंचल गति भगवत प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करती है इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य के शरीर के मूलाधार चक्र में कुंडली शक्ति सोई हुई है। प्राणायाम या प्राण कर्म द्वारा इसे जगाया जाता है। शरीर में पांच चक्र, पांच तत्व केंद्र हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि या तेज, वायु एवं आकाश ।शक्ति सभी चक्रों में समान मात्रा में स्थित है। किंतु मूलाधार चक्र में शक्ति के जाग्रत होने पर वह वायव्य शक्ति सुषुम्ना के भीतर से ऊपर की ओर उठती रहती है और क्रमशः सभी चक्रों में स्थित शक्ति को जागृत करते हुए पूर्ण रूप से जागृत होकर पांचो चक्र को मुक्त कर देती है। और तब इस स्थिति में अज्ञान का आभाष तक नहीं मिलता है और शिव शक्ति का मिलन होता है ।आज्ञा चक्र में यही शक्ति अथवा प्रकृति का मिलन ही महा मिलन है ।
वायव्य शक्ति से ही इच्छाओं का नाश होता है, ज्ञान की प्राप्ति होती है और ऐसी स्थिति में देह त्याग के बाद फिर वर्तमान अवस्था में जन्म नहीं होता है, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति होती है। साधक को उचित साधन के द्वारा पूर्ण रूप में चंचलता को नियंत्रित करके स्थिरता की प्राप्ति करना चाहिए। जीव चंचल प्राण है, और शिव स्थिर प्राण है ।
जीव को प्रकृति तत्व भी कहा जाता है ।जब चंचलता समाप्त होकर स्थिर प्राण में मिलन करती है तो साधक स्वयं शिव रूप होता है ।ऐसी योग साधना के लिए स्वस्थ मानव देह और दृढ़ मनोबल आवश्यक है ।कूटस्थ ही ईश्वर है, परमात्मा, ब्रह्म है,और कूटस्थ पर रमन ही पुण्य है ,अन्यथा कर्म पाप ही है।
जीवन चंद्र उप्रेती
योग एवं आध्यात्मिक गुरु।