युग ऋषि का आज का चिंतन दृष्टिकोण

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‼️ऋषि चिंतन ‼️
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।। दृष्टिकोण सकारात्मक ही रखें ।।
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👉 संसार की प्रत्येक वस्तु में भले-बुरे दोनों प्रकार के तत्त्व विद्यमान हैं। ठीक उसी तरह जैसे काल के सन्दर्भ में रात और दिन। संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने आप में अपूर्णता लिये हुए हैं। चैतन और जड़ के सहयोग से निर्मित यह विश्व विकारयुक्त है। निर्विकारी तो एक मात्र परमात्म सत्ता, ब्रह्म ही है, यह निर्विवाद सत्य है। किन्तु मनुष्य का प्रतिगामी दृष्टिकोण केवल वस्तुओं, स्वयं और संसार के कृष्णपक्ष को ही देखता है।
👉 जिस तरह हरा चश्मा चढ़ा लेने पर चारों और हरा ही हरा, लाल चढ़ा लेने पर लाल ही लाल दिखाई देता है वैसे ही संसार की विभिन्नता मनुष्य के दृष्टिकोण की विभिन्नता का ही परिणाम है। एक पेड़ को बढ़ई इस दृष्टि से देखेगा कि इसमें काम का सामान क्या-क्या बनेगा ? एक दार्शनिक विश्वचेतना और जड़ के सम्मिलित सौन्दर्य को देखकर खिल उठेगा। एक पशु उसे अपने भोजन की वस्तु समझेगा। एक साधारण व्यक्ति उसे कोई महत्त्व नहीं देगा।
👉 हमारी मानसिक शक्ति ही बाह्य संसार के रूप में हमारे सामने आती है। दूसरों को भले रूप में देखना अपने ही भले दृष्टिकोण, पुरोगामी मानसिक शक्ति का परिणाम है। दूसरों की बुराई, दोष दर्शन, छिद्रान्वेषण अपने ही विकृत आन्तरिक जीवन का दर्शन है, प्रतिगामी मानसिक शक्ति का परिणाम है।
👉 मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, वह दूसरों के प्रति जैसा सोचता है उसी के अनुसार उसके विचार होते हैं, और इसके फल स्वरूप वैसा ही वातावरण, परिस्थितियाँ प्राप्त कर लेता है। दूसरों के दोष दर्शन, छिद्रान्वेषण करने वाले व्यक्ति जहाँ भी जाते हैं उन्हें अच्छाई नजर नहीं आती और लोगों से उनकी नहीं बनती। सबको अच्छी निगाह से देखने वाले सरल सात्विक स्वभाव के लोगों को सब जगह अच्छाई ही नजर आती है। बुराई में भी वे ऊँचे आदर्श का दर्शन करते हैं। मरे हुये कुत्ते से लोग घृणा करते हैं किन्तु करुणा मूर्ति “ईसामसीह” ने उसी में परमात्मा के सौन्दर्य का दर्शन कर अपनी गोद में उठा लिया था।
👉 सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करने पर बुरे तत्त्व भी अनुकूल बन जाते हैं। इस तरह बाह्य वातावरण परिस्थितियों के निर्माण में मनुष्य का स्वयं का अपना दृष्टिकोण और उससे प्रेरित भाव, विचार, आचरण ही प्रमुख होते हैं। मनुष्य के मित्र और शत्रु, उसके भाव, विचार, दृष्टिकोण आदि ही हैं। बाह्य जगत तो मनुष्य के आन्तरिक जीवन की छाया मात्र है। बाह्य परिस्थितियाँ, उलझनें, समस्यायें एवं कठिनाइयाँ तो आन्तरिक जीवन के फलस्वरूप ही है
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जीवन की श्रेष्ठता और उसका सदुपयोग पृष्ठ १७
🍁पं श्रीराम शर्मा आचार्य🍁
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