युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा जी आचार्य का आज का चिंतन

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🌴।।१४ जून २०२५ शनिवार।।🌴
//आषाढ़कृष्णपक्ष तृतीया २०८२ //
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‼️ऋषि चिंतन ‼️
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हम सफलता के प्रति दृढ़ विश्वासी बनें
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👉 हम “सफलता” प्राप्त कर सकेंगे यही हमको मानना चाहिये। शिथिल महत्वाकाँक्षा और ढीले प्रयत्न से कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । हमारी श्रद्धा में, हमारे निश्चय में, हमारे उद्योग में बल होना चाहिये। हमको कार्य सिद्ध करने वाली शक्ति के साथ ही किसी विषय का निश्चय करना चाहिये।
👉 जिस प्रकार बहुत अधिक गर्मी देने से लोहा पिघल जाता है, जिस प्रकार विद्युत की एकाग्र शक्ति सब वस्तुओं से अधिक कठोर हीरा को भी घिस डालती है. उसी प्रकार एकाग्र लक्ष्य और अजेय उद्देश्य सफलता प्राप्त कराता है। आधे मन से किया हुआ कार्य सिद्ध नहीं हो सकता।
👉 जो कभी पीछे की तरफ नहीं देखता, पराजय का विचार भी नहीं करता और लक्ष्य सिद्धि के लिए सर्वस्व अर्पण करने को तैयार रहता है, वही मनुष्य दृढ़ निश्चय कर सकता है। एक व्यक्ति जब आत्म-श्रद्धा को खो देता है- हथियार डाल देता है, तो उसका उपाय यही है कि उसकी खोई हुई वस्तु-आत्म-श्रद्धा को उसे पुनः प्राप्त कराने का प्रयत्न करना चाहिये। उस समय ऐसा विचार मत करो कि ‘उसका भाग्य उसे जहाँ-तहाँ भटका रहा है, और इस रहस्यमय भाग्य के सामने उसका क्या वश चल सकता है।’ उसको मन से निकाल देने का प्रयत्न करना चाहिये। किसी भी तरह के भाग्य से मनुष्य बड़ा है और बाहर की किसी भी शक्ति की अपेक्षा प्रचण्ड शक्ति उसके भीतर मौजूद है इस बात को जब तक वह नहीं समझ लेगा तब तक उसका कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
👉 बहुत से लोगों का जीवन अत्यन्त संकुचित और दरिद्री होता है, उसका कारण यही है कि उनमें “आत्म-श्रद्धा” और कार्य करने की “श्रद्धा” नहीं होती। बहुत से लोग इस तरह फूंक-फूंक कर कदम रखते हैंऔर किसी प्रकार का साहस करने में इतना डरते रहते हैं कि उनका आगे बढ़ सकना कठिन ही होता है।
👉 “आत्म-श्रद्धा” का अर्थ “अहंकार” नहीं वरन् “ज्ञान” समझना चाहिये। अपने आरम्भ किये हुए काम को पूरा करने की शक्ति हम में मौजूद है ऐसा प्रतीत होने से यह ज्ञान उत्पन्न होता है। हमारी समस्त “उन्नति” और “संस्कृति” इसी “आत्म-श्रद्धा” पर आधारित होती है। इसके विपरीत जिन मनुष्यों के मन में सदा शंका घुसी रहती है और जो हानि-लाभ की गिनती करने में ही लगे रहते हैं उनमें आगे बढ़ने की शक्ति नहीं हो सकती। यदि वे कभी कार्यारम्भ भी करते हैं तो डगमगाते हुए चलते हैं, उनके कार्य में बल नहीं होता, उनके उद्योग में निश्चय का भाव नहीं पाया जाता।
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जीवन की श्रेष्ठता और उसका सदुपयोग पृष्ठ २६
🍁पं श्रीराम शर्मा आचार्य🍁
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