युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी का आज का चिंतन

🌴।।१२ जून २०२५ गुरुवार।।🌴
//आषाढ़कृष्णपक्षप्रतिपदा२०८२ //
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‼️ऋषि चिंतन ‼️
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–“क्रोध” हमारे नियंत्रण में हो–
हम “क्रोध” के नियंत्रण में न हो जाएं
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👉 सर्वथा “अहिंसक” बनकर रहना किन्हीं योगी तपस्वियों के लिए अपवाद रूप में ही संभव हो सकता है। सामान्यजनों के लिए तो इतनी अहिंसा बन पड़ती है कि क्रूरता की सीमा तक न पहुंचे। मांसाहार न करें। सभी में स्नेह सद्भाव रखें और अनीतिपूर्वक शोषण करने से बचें। सेना और पुलिस द्वारा दुष्टों से निपटने के लिए जो हिंसा की जाती है। डाकुओं का मुकाबला करने में पुलिस गोली चलाती है। यह सब कैसे बंद हो ? इनसब बातों को ध्यान में रखते हुए धर्म के लक्षणों का का विवेचन करते हुए भगवान मनु ने “सत्य” के साथ “अहिंसा” का नहीं वरन् “अक्रोध” का युग्म बनाया और उससे भी अहिंसा के तत्व ज्ञान की आंशिक पूर्ति होती देखी है।
👉 प्रतिपक्षी, विरोधी, आक्रामक, चोरी, हानि पहुंचाने वालों के कारण जो आक्रोश उत्पन्न होता है उसे मर्यादा में रखने की प्रक्रिया शास्रकारों ने “मन्यु” जताई है और भगवान से ऋचाकारों ने प्रार्थना की है कि हे भगवान। आप “मन्यु” हैं। हमें भी “मन्यु” दीजिए। पंचवटी क्षेत्र में जब असुरोंद्वारा नष्ट किये हुये लोगोंकी अस्थि समूह देखा तो राम ने भुजा उठाकर प्रण किया कि इस पृथ्वी को निशाचर विहीन किया जायगा और सचमुच उन्होंने वैसा किया भी। सीता अपहरण के प्रत्युत्तर में ही जिन हनुमान ने पर्वत उठाया और समुद्र लांघा था वे सीताजी को भी पीठ पर बांध कर वापस ला सकते थे पर वास्तविकता दूसरी ही थी। असुरों का विनाश ही किसी बहाने करना था ताकि अत्याचारों की श्रृंखला को विराम दिया जा सके।
👉 इस समूचे संयोजन में राम ने समुचित योजनाएं बनाई और रणनीति अपनाई किन्तु किसी अवसर पर भी अपना “संतुलन” न खोया, “आवेशग्रस्त” न हुए। कारण कि जिस पर क्रोध किया जाता है उससे बदला लेने के निमित्त हानि पहुंचाने की तुलना में अपना ही अहित हो जाता है। आधे घंटे के “क्रोध” में उतना खून सूख जाता है जितना कि चौबीस घंटे के तेज बुखार में।
👉 मशीनें चलाने वाली मोटर जब गरम हो जाती है तो ये काम करना बंद कर देती है या अपनी वायरिंग जला देती है। तेजाब जहां भी फैलता है वहां वस्तुएं ही नहीं जमीन तक जला देता है। माचिस औरों को जलाने से पूर्व अपने आपको समाप्त कर लेती है। “क्रोध” भी इसी स्तर की आग है जो जिसके विरुद्ध भड़की है उसे हानि पहुंचाने से पूर्व अपने आप को जला लेती है।
👉 उत्तेजित मस्तक सही तरह से सोचने की स्थिति में नहीं रहता। उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। सूझ नहीं पड़ता कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं? नशे की उत्तेजना में आदमी कुछ भी कर सकता है। कोई काम बिगड़ सकता है। किसी के प्रति भी असभ्य और अनुचित व्यवहार कर सकता है। यहां तक कि दूसरों का सिर फोड़ सकता है या अपनी आत्महत्या कर सकता है। ऐसी विक्षिप्त स्थिति में बिगड़े काम को बनाना और उलझन को सुलझाना तो नितान्त कठिन है। शराबी के लड़खड़ाते हुए डगमगाते हुए-कदम उठते हैं, उसी प्रकार आवेशग्रस्त व्यक्ति जो सोचता है जो करता है वह तीन चौथाई गलत होता है। जिसके कारण आवेश आया था उस स्थिति को सुधारना या व्यक्ति को बदलना तो दूर अपने आपे को ही विभिन्न स्थिति में डाल लेने वाला व्यक्ति उस बचकानेपन के कारण सम्पर्क क्षेत्र में अपनी इज्जत बुरी तरह गिरा लेता है। फलतः जो उसके समर्थक एवं सहयोगी थे वे भी विरोधी बन जाते हैं।
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अखंड ज्योति मई १९८८ पृष्ठ ११
🍁पं श्रीराम शर्मा आचार्य🍁
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