ऋषि चिंतन: समझिए सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर में अंतर

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‼ऋषि चिंतन‼
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।। “स्थूल” शरीर तथा “सूक्ष्म” शरीर ।।
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👉 “स्थूल” और “सूक्ष्म” का अन्तर प्रत्यक्ष है । स्थूल शरीर पंच तत्वों के सूक्ष्म घटकों से बना है। उन्हें त्वचा, रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि के रूप में देखा जा सकता है। कर्मेन्द्रियों में शरीरचर्या एवं लोक व्यवहार के विविध विधि क्रियाकलाप चलते हैं। “सूक्ष्म शरीर” पाँच प्राणों का बना है। उसके प्रतीक पाँच शक्ति केन्द्र हैं, जिन्हें पंच कोष भी कहते हैं-प्राणमयकोष, अन्नमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष के रूप में इनकी पहचान की जाती है। इन पाँचों प्राणों का समन्वय महाप्राण के रूप में समझा जाता है । जीवन चेतना यही है । इसके काया से पृथक हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। मरे शरीर का तात्विक विश्लेषण करने पर उसमें वे सभी रसायन पाये जाते हैं, जिनसे शरीर बना है, किन्तु उनमें से महाप्राण का, चेतना का पलायन हो जाने पर वह निरर्थक हो जाता है । स्वयं सड़ने और नष्ट होने की क्रिया आरंभ कर देता है। जिन्हें इस निरर्थक का अन्त सुव्यवस्थित रीति से करना हो, वे उसका अग्नि, भूमि, जल के साथ जल्दी समापन कर देते हैं ।
👉 प्रश्न यह उठता है कि मरने के उपरान्त जो वस्तु शरीर छोड़कर चली गयी, वह “क्या” थी ? उसका स्वरूप “क्या” था ? जीवन काल में वह “कहाँ” रही ? “क्या करती” रही ? उसकी भावी गतिविधि “क्या बनी” ? इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने से पहले हमें सूक्ष्म शरीर का स्वरूप समझना चाहिये । इस प्रारंभिक पृष्ठभूमि को समझ लेने के उपरान्त ही यह समझ सकना संभव होगा कि जीवनकाल में वह क्या करता है ? और मरने के उपरान्त उसकी गतिविधियों का क्षेत्र क्या हो जाता है ?
👉 जीवन काल में सूक्ष्म शरीर का स्वरूप “ज्ञान” के रूप में होता है। इसका केन्द्रीय कार्यालय मस्तिष्क माना जा सकता है। यों वह चेतना स्थूल शरीर के कण-कण में समाहित है । ज्ञान तन्तु समस्त शरीर में फैले हुए हैं । वे अपने-अपने क्षेत्र की आवश्यक सूचनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं। परिस्थिति से निपटने के लिये क्या उपाय अपनाया जाना चाहिये, इसका निर्देश मस्तिष्क से तुर्त-फुर्त प्राप्त करते है और तदनुसार अंग अवयव काम करने लगते हैं ।
👉 “ज्ञानेन्द्रियों” में अतिरिक्त काम करने की शक्ति भी है और आनन्द प्रदान करने की क्षमता भी । आँखें दृश्यों को देखती भी है साथ ही दृश्य की सुन्दरता का, विचित्रता का आनन्द भी लेती हैं। यही बात जिह्वा, कान, नाक, त्वचा, जननेन्द्रियों आदि के संबंध में भी है। वे शरीर यात्रा से सम्बन्धित अपने-अपने व्यवहार कर्मों का निर्वाह भी करते हैं और भारभूत दीखने वाले इस नीरस कारखाने में सरसता का समावेश भी करते हैं। यदि इस काया के साथ बहुविधि सरसता जुड़ी न होती, तो समग्र जीवन भारभूत हो जाता । अतिरिक्त निर्वाह के लिये जो प्रयत्न करना पड़ता है, साधन जुटाने में, परिस्थितियों से निबटने में जो ताना-बाना बुनना पड़ता है, वह भी संभव न होता । यह “सूक्ष्म” शरीर का सामान्य क्रियाकलाप है, जो मृत्यु हो जाने पर अनायास ही बन्द हो जाता है ।
👉 वस्तुस्थिति को समझने पर विदित होता है कि “स्थूल” शरीर के साथ “सूक्ष्म” शरीर की सत्ता उसी प्रकार घुली हुई है, जैसे दूध में घी और फूल में इत्र की गंध गुथी होती है। उन्हें चाकू से काटकर अलग नहीं किया जा सकता, किन्तु अन्य आधारों के बल पर यह अनुभव किया जा सकता है कि कोई विशेष सत्ता अपना अस्तित्व रखे हुए अवश्य है, जिसके कारण शरीर की शोभा, सक्रियता बनी हुई थी । “घी” निकालने पर “दूध” मात्र “छाछ” रह जाता है । “इत्र” निकालने पर “फूल” एक कचरा मात्र रह जाता है । इसी प्रकार “स्थूल” और “सूक्ष्म” शरीर की सुसंबद्धता जब टूट जाती है, तो दोनों अपनी वास्तविक स्थिति का परिचय देने लगते हैं ।
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अन्त:शक्ति के उभार एवं चमत्कार पृष्ठ-०८
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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