ऋषि चिंतन: जड़ता और चेतना पर पढ़िए युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के विचार
🥀 २० दिसंबर २०२४ शुक्रवार 🥀
🌺पौष कृष्णपक्ष पंचमी२०८१🌺
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‼ऋषि चिंतन‼
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❗।।”जड़ता” और “चेतना”।।❗
– हम किसे अधिक महत्त्व देते हैं –
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👉 “जड़ता” का प्रभाव जीव पर जितना अधिक होगा उतना ही वह जड़ पदार्थों से प्रेम अधिक करेगा उनका स्वामित्व, संग्रह एवं उपभोग उतना ही उसे अधिक रुचेगा। आलस्य, मोह और अहङ्कार यह जड़ता के प्रधान चिन्ह हैं। जड़ पदार्थ निर्जीव है इसलिये जिनमें जड़ता बढ़ेगी वह उतना ही “आलसी” बनता जावेगा। प्रयत्न, पुरुषार्थ, परिश्रम में रुचि न होगी, “अध्ययन” “भजन” एवं “सत्कार्यों” में मन न लगना इस बात का चिन्ह है कि “चित्” ईश्वरीय तत्व का विरोधी “आलस” आसुरी तत्व अपने अन्दर भर रहा है। उसी प्रकार वस्तुओं को उपकरण मात्र मानकर उनसे सामयिक लाभ उठा लेने की बात न सोच कर उपलब्ध सम्पदा को मौरूसी मान बैठना, उसके छिनने पर रोना चिल्लाना यह प्रकट करता है कि नाशवान और निर्जीव पदार्थों के प्रति अवांछनीय ममता जोड़ ली गई है, “अहङ्कार” तो “असुरता” का-“तमोगुण” का – प्रत्यक्ष चिन्ह है। क्षण-क्षण में बदलती रहने वाली वस्तुओं और परिस्थितियों की अनुकूलता पर जो घमण्ड करता है वह यह भूल जाता है कि इस संसार का प्रत्येक परमाणु अत्यन्त द्रुतगति से अपनी धुरी पर घूमता है और प्रत्येक परिस्थिति तेजी के साथ उलटती – पलटती रहती है फिर पानी में उठने वाले बबूले की तरह इस क्षण-प्राप्त “सौभाग्य” पर इतराना क्या? ऐंठना और अकड़ना क्या? जो आज है वह कल कहाँ रहने वाला है, फिर अहङ्कार करने का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता है।
👉 लोभ और मोह के वशीभूत होकर वासना और तृष्णा से प्रेरित होकर प्राणी विविध प्रकार के अकर्म और दुष्कर्म करता हुआ जीवन के बहुमूल्य क्षणों का दुरुपयोग करता है। यही “अज्ञान” है, यही “माया” है, यही “अविद्या” है। एक ओर आत्मा की सत् चित् और आनन्द की मूल प्रकृति उसे उच्च भूमिका की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है। दूसरी ओर जड़ता एवं माया का प्रकोप जीव के ऊपर होता रहता है। एक दिशा में दैवी प्रकृति खींचती है दूसरी तरफ आसुरी प्रकृति जोर लगाती है। फलस्वरूप धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र – अन्तःकरण में अशान्ति और असंतोष का महाभारत मचा रहता है। “जड़ता” हमें बन्धन में बाँधती है और “चेतना” मुक्ति का सन्देश प्रदान करती है।
👉इस रस्सा कशी में जीतता वही है जिस पर आत्मा अपनी स्वीकृति की मुहर लगा देती है। उसका वोट जिधर पड़ता है उधर ही जीत हो जाती है। किसी बच्चे पर दो माताएँ अपना दावा करें तो न्यायाधीश उस पक्ष में फैसला देता है कि जिसे बच्चा पहचान ले और जिसके पास जाना पसन्द करे। “जड़ता” और “चेतना” ऐसी ही “माता” और “विमाता” है दोनों ही आत्मा पर अपना दावा करती हैं और उसे अपने पक्ष में फुसलाना चाहती हैं। अच्छाई इतनी ही है कि फैसला “आत्मा” की अभिरुचि के ऊपर निर्भर रखा गया है। पतन और उत्थान के दोनों ही मार्ग उसके लिये खुले हुए हैं। वह जिसे चाहे उसे पसन्द कर सकती है ।
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग पृष्ठ-९६
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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