आज का ऋषि चिंतन वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के विचार

🥀// ०३ मई २०२५ शनिवार //🥀
//वैशाख शुक्लपक्ष षष्ठी २०८२//
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‼ऋषि चिंतन‼
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लक्ष्मी जी का आलंकारिक स्वरूप
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👉 “अर्थोपार्जन” में जिन आध्यात्मिक गुणों का समावेश होना चाहिए, शास्त्रकार ने उन्हें बड़े आलंकारिक ढंग से प्रस्तुत किया है। लक्ष्मी को वे देवी मानते हैं। उन्हें कमल पुष्प पर आसीन, ऊपर से फूलों की वर्षा होती हुई दिखाया गया है। कमल “पवित्रता” और “सौंदर्य” का प्रतीक है। लक्ष्मी “पवित्रता” और “सौंदर्य” अर्थात “ईमानदारी” और “सचाई” पर विराजमान हैं। उनका वाहन उल्लू है। “उल्लू” “मूर्खता” का प्रतीक है। मूर्खतापूर्ण स्वभाव वाले या “अवगुणी” व्यक्तियों के लिए यह लक्ष्मी भार स्वरूप, दुःख रूप होती है। यह दिग्दर्शन उनके चित्र में कराया गया है। मनुष्य किस प्रकार समृद्ध बने इसका आध्यात्मिक विवेचन शास्त्रकार ने स्वयं लक्ष्मी जी के मुख से कराया है । वर्णन भले ही आलंकारिक हो पर उसमें जिन सिद्धांतों का समावेश हुआ है वे अटल हैं। उनकी उपेक्षा करने से कोई भी व्यक्ति न तो धनी हो सकता है और न उस घर में सुख, शांति और संतोष ही प्राप्त कर सकता है।
👉 एक साधक के प्रश्न का उत्तर देती हुई लक्ष्मीजी कहती है..
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने ।
अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्ण सत्वेङ्क्त
अर्थात्
मैं सुंदर स्वभाव वाले, चतुर, मधुरभाषी, कर्तव्यनिष्ठ, क्रोधहीन भगवत्परायण, कृतज्ञ, जितेंद्रिय और बलशाली लोगों के पास नित्य निवास करती हूं ।
👉 धन का कमाना, उसे बचाकर रखना और उससे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति उपर्युक्त गुणों पर आधारित है। उनमें से एक भी उपेक्षणीय नहीं। रोजगार करें या नौकरी, खेती करें या अन्य कोई रोजगार, चतुरता, विनम्रता, कर्त्तव्यपरायणता आदि सभी गुण चाहिए। बात-बात पर झगड़ा करने, कर्तव्य की उपेक्षा करने या अपने सहयोगियों से मिलकर न रहने से न तो रोजगार पनप सकता है और न कोई अधिक समय तक नौकरी में ही रख सकता है।
👉 लक्ष्मी के दूसरे कृपापात्र “परिश्रमी” व्यक्ति होते हैं। जब कोई व्यक्ति उद्योग-धंधा, व्यापार या परिश्रम त्याग देता है तो उसके पास की लक्ष्मी नाराज होकर लौट जाती है। ‘उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी।’ की कहावत प्रसिद्ध है।
धनाभाव होना यह बताता है कि वह व्यक्ति “परिश्रम” नहीं कर रहा है। उद्योगी और परिश्रमी व्यक्ति सदा समृद्ध देखे जाते हैं। “परिश्रम” और “उद्योग” करते हुए अनैतिक रास्तों का अनुकरण भी नहीं करना चाहिए, अन्यथा ऐसे बखेड़े, झगड़े या आपत्तिपूर्ण अवसर आ जाएँगे जिससे बढ़ी हुई आय कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाएगी। एक अन्य सूक्त में कहा है-
स्थिता पुण्यवतां गेहे सुनीति पथवेदिनाम्।
गृहस्थानां नृपाणां वा पुत्रवत्पालयामि तान्ङ्क।।
मैं नीति पर चलने वाले, पुण्य कर्म करने वाले गृहस्थों के घर बनी रहती हूँ और उनका पुत्र के समान पालन करती हूँ।
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धनबल से मनुष्यता रौंदी न जाए पृष्ठ-१७
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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