क्या हैं राग और द्वेष, समझिए आचार्य बहुगुणा से

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ॐ श्री परमात्मने नमः
 
वास्तव में राग-द्वेष माने हुए ‘अहम्’ (मैं-पन)-में रहते हैं । शरीर से माना हुआ सम्बन्ध ही ‘अहम्’ कहलाता है । जब तक शरीर से माना हुआ सम्बन्ध रहता है, तब तक उस में राग-द्वेष रहते हैं ।….राग और द्वेष के ही स्थूल रूप काम और क्रोध हैं ।
 
सांसारिक वस्तु महत्त्व शाली है, अपने काम में आने वाली है, उपयोगी है-ऐसा जो भाव है, उसका नाम ‘ राग ‘ है । तात्पर्य है कि अन्तःकरण में असत् वस्तु का जो रंग चढ़ा हुआ है, वह ‘राग’ है ।
 
असत् संसार के किसी अंश में राग हो जाय तो दूसरे अंश में द्वेष हो जाता है‒यह नियम है ।……संसार के साथ राग से भी सम्बन्ध जुड़ता है और द्वेष से भी सम्बन्ध जुड़ता है ।
 
जिसमें राग हो जाता है, उसमें दोष नहीं दीखते और जिसमें द्वेष हो जाता है, उसमें गुण नहीं दीखते । राग-द्वेष से रहित होने पर ही वस्तु अपने वास्तविक रूप से दीखती है ।
 
भीतर में पदार्थों का राग है, इसलिये पदार्थ सच्‍चे दीखते हैं । मन के ऊपर पदार्थों का रंग चढ़ जाता है, रुपये अच्छे लगते हैं, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार अच्छा लगता है, आराम अच्छा लगता है‒यह अच्छा लगना ‘राग’ है । जब तक किसी वस्तु या व्यक्ति में राग है, तब तक शान्ति नहीं मिलती । कहीं सुख नहीं दीखता । संसार सूखा दीखता है । अगर सुख मिलेगा भी तो दुःख वाला सुख मिलेगा । जो दुःख का कारण है, वह सुख मिलेगा ।

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