ऋषि चिंतन: युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का सुविचार, धर्म क्या है

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🥀// १५ मार्च २०२५ शनिवार //🥀
💐चैत्र कृष्णपक्ष द्वितीया २०८१💐
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‼ऋषि चिंतन‼
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❗सर्वजन हिताय ही धर्म है ❗
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👉 “धर्म” अनादि तत्त्व है। यह एक प्रकार का दैवी संदेश है। जिस समय लोगों में भाषा, साहित्य और विचार प्रदर्शन की क्षमता नहीं थी, उस समय मनुष्य के समक्ष धर्म-अधर्म का प्रश्न उपस्थित हुआ। तब लोग अपने अंतःकरण की आध्यात्मिक प्रेरणा को प्रमाण मानते थे और उसी के अनुसार आचरण करते थे। इससे यह प्रकट होता है कि “धर्म’ मानव समाज का नियम या प्रतिबंध नहीं है, वरन यह वह “दृढ़ विचार” है, जो संपूर्ण संसार की भलाई को ध्यान में रखकर परमात्मा द्वारा प्रस्फुटित किया गया है।
👉 इसलिए उन नियमों को जिनमें सार्वभौमिकता की उदार-भावना सन्निहित हो, पालन करना ही “धर्म” कहा जाता है। स्वार्थ और भय के कारण इन नियमों का यहाँ उल्लंघन करना ही अधर्म है। परपीड़न, द्वेष, ग्लानि, छल-कपट, झूठ, बेईमानी आदि बुराइयाँ मनुष्य की स्वार्थपूर्ण संकीर्णताओं के कारण होती हैं। इनसे ‘सर्वहिताय’ की सामूहिक भावना का अतिक्रमण होता है, जिससे दूसरों को दुःख मिले या औरों के हितों पर आघात पहुँचे, वह धर्म नहीं कहा जा सकता। “धर्म” का श्रेष्ठ स्वरूप वह है, जिसमें मनुष्य सबके कल्याण के लिए अपने को घुलाता है। दूसरों को सुखी देखने के लिए जो अपने थोड़े से सुखों का भी परित्याग कर देता है, सबकी रक्षा के लिए जो अपने प्राण हवन कर देता है, वह सच्चा धर्मनिष्ठ कहलाने का अधिकारी है।
👉 “धर्म” परस्पर भेदभाव करना नहीं सिखाता। वह तो मनुष्य में प्रेम और प्रीति उत्पन्न करता है। सबको भाई मानना और सबके साथ समानता का व्यवहार करना ही उसे प्रिय है। वह जाति-पाँति के, जीव-जीव के शारीरिक भेद को नहीं मानता। आत्मा सर्वत्र प्रकाशमय है, वही संपूर्ण प्राणियों में समाया है, फिर एक प्राणी की दूसरे प्राणी के साथ विलगता कैसी ? यह दुराव क्यों हो, जब सात्त्विक दृष्टि से हम में कोई भेद नहीं है। “धर्म” एक आध्यात्मिक तत्त्व है, वह निर्मल है, पवित्र है और जिस मनुष्य के पास रहता है, उसे ही निर्मल अंतःकरण वाला बना देता है। कहते हैं कि सुहागे से सोने के रंग-रूप में निखार आता है, मनुष्य में निखार और तेजस्विता धर्म जमाता है। “धर्म” ही मनुष्य जीवन का प्राण है।
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धर्मरक्षा से ही आत्मरक्षा होगी पृष्ठ-११
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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