ऋषि चिंतन वेद मूर्ति तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी का सुविचार, धर्म रक्षा से ही आत्म रक्षा

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🥀// १३ मार्च २०२५ गुरुवार //🥀
//फाल्गुन शुक्लपक्ष चतुर्दशी २०८१//
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‼ऋषि चिंतन‼
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➖।।धर्म ही रक्षा करता है।। ➖
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👉 यह जीवन इस तरह विनिर्मित हुआ है कि इसमें संघर्ष, परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव, दीनता, कुटिलता आदि के अप्रत्याशित आक्रमण सभी को सहन करने पड़ते हैं। परेशानियों, कष्ट और मुसीबतों की आँधी आती है तो मनुष्य को झकझोरकर रख देती है, उसकी शक्तियाँ कुंठित हो जाती हैं। बुद्धि ठीक तरह काम नहीं करती, निराशा आ घेरती है। ऐसे समय एक चाह उत्पन्न होती है-कौन हमारी रक्षा करे, कौन हमारा उद्धार करे, सही पथ का ज्ञान कौन करावे ?

शास्त्रकार समुद्यत हुआ, उसने बताया –
यो धर्मो जगदाधारः स्वाचरणे तमानय।
मा विडम्बय तं स ते ह्येको मार्गे सहायकः ।।
अर्थात “हे मनुष्यों ! जो “धर्म” सारे संसार का आधार है, तुम उसी का आचरण करो। “धर्म” से विमुख मत बनो। तुम्हारा एकमात्र सहायक “धर्म” ही है।”
👉 यह सच है कि संसार के संपूर्ण क्रिया-कलाप और व्यवसाय, “धर्म” के कारण ही टिके हैं। धर्म, सुख-शांति की परिस्थितियों का जन्मदाता है। लोकजीवन में वह आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है। जिस दिन “धर्म” का पूर्णतया लोप हो जाएगा, उस दिन संसार को सर्वनाश से कोई बचा न सकेगा।
👉 इस युग में जो अधर्माचरण बढ़ रहा है, उससे मनुष्य की नैतिक अवस्था, सुख और शांति में बड़ा व्याघात उत्पन्न हो रहा है। किसी के भी मन में संतोष नहीं है। सर्वत्र स्वार्थ, भोग और शोषण का जाल फैला है। इस जंजाल में ग्रसित मनुष्य बुरी तरह छटपटा रहा है, पर त्राण का कोई रास्ता 5⁵उसे सूझ नहीं रहा है।
👉 राह एक ही है-“धर्म” ! वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि धर्मशास्त्रों में इसी तत्त्व का निरूपण हुआ है। जिस युग में धर्म की प्रधानता रही, वह युग ‘सतयुग’ कहलाया। सतयुग में सुख और संपन्नता का आधार धर्म होता है। इसकी विकृति और विडंबना ही कलियुग हुएउमें दुःख, क्षोभ और अशांति का कारण बनती है।
👉 किसी भी अवस्था में मनुष्य की रक्षा “धर्म” ही करता है। भगवान राम वन जाने के लिए तैयार हुए तो जीवन-रक्षा की कामना से उन्होंने माता से आशीर्वाद माँगा। विदुषी कौशल्या ने कहा-
यं पालयसि धर्म त्व प्रीत्या च नियमेन च।
स वै राघवशार्दूल धर्मत्वामभिरक्षतु ॥ – (वा. रामायण २.२५.३)
अर्थात “हे राम ! तुमने जिस “धर्म” की प्रीति और नियम का पालन किया है, जिसके अनुसरण से तुम वन जाने को तत्पर हुए हो, वही “धर्म” तुम्हारी रक्षा करेगा।”
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धर्म रक्षा से ही आत्मरक्षा होगी पृष्ठ-०८
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴
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